गीता रहस्य -तिलक पृ. 136

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

कपिलसांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षरविचार । पकृति पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि ।[1] [2]

पिछले प्रकरण में यह बात बतला दी गई हैं कि शरीर और शरीर के स्वामी या अधिष्ठाता-क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ-के विचार के साथ ही साथ दृश्य सृष्टि और उसके मूलतत्त्व-क्षर और अक्षर का भी विचार करने के पश्चात् फिर आत्मा के स्परूप् का निर्णय करना पड़ता है इस क्षर-अक्षर-सृष्टि का योग्य रीति से वर्णन करने वाले तीन शास्त्र हैं। पहला न्यायशास्त्र और दूसरा कापिल सांख्यशास्त्र ; परन्तु इन दोनों शास्त्रों के सिद्धांतों को अपूर्ण ठहरा कर वेदान्तशास्त्र ने ब्रह्म स्वरूप् का निर्णय एक तीसरी ही रीति से किया है। इस कारण वेदान्त-प्रतिपादित उपपत्ति का विचार करने के पहले हमें न्याय और सांख्य शास्त्रों के सिद्धांतो पर विचार करना चाहिये। बादरायणाचार्य के वेदान्तसूत्रों में इसी पद्धति से काम लिया गया है और न्याय तथा सांख्य के मतों का दूसरे अध्याय में खंड़न किया गया है। यद्यपि इस विषय का यहाँ पर विस्तृत वर्णन नहीं कर सकते, तथापि हमने उन बातों का उल्लेख इस प्रकरण में और अगले प्रकरण में स्पष्ट कर दिया है कि जिनकी भगवद्गीता का रहस्य समझने में आवश्यकता है।

नैय्यायिकों के सिद्धान्तों की अपेक्षा सांख्यवादियों के सिद्धांत अधिक महत्त्व के हैं। इसका कारण यह है कि कणाद के न्यायमतों को किसी भी प्रमुख वेदान्ती ने स्वीकार नहीं किया है, परन्तु कापिल सांख्यशास्त्र के बहुत से सिद्धांतों का उल्लेख मनु के स्मृतिग्रथों में तथा गीता में भी पाया जाता है। यही बात बादरायणाचार्य ने भी[3] कही है इस कारण पाठकों को सांख्य के सिद्धांतों का परिचय प्रथम ही हो जाना चाहिये। इसमें संदेह नहीं कि वेदांत में सांख्यशास्त्र के बहुत से सिद्धांत पाये जाते हैं; परन्तु स्मरण रहे कि सांख्य और वेदान्त के अंतिम सिद्धांत, एक दूसरे से, बहुत भिन्न हैं। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि, वेदान्त और सांख्य के जो सिद्धांत आपस में मिलते जुलते हैं उन्हें पहले किसने निकाला था- वेदान्तियों ने या सांख्य-वादयिों ने? परन्तु इस ग्रंथ में इतने गहन विचार में प्रवेश करने की आवश्यकता नहीं इस प्रश्न का उत्तर तीन प्रकार से दिया जा सकता है।

पहला यह कि, सांख्य और वेदान्त (उपनिषदों) की वृद्धि, दो सगे भाइयों के समान साथ ही साथ हुई हो और उपनिषदों में जो सिद्धान्त सांख्यों के मतों के समान देख पड़ते हैं उन्हें उपनिषत्कारों ने स्वतंत्र रीति से खोज निकाला हो।

दूसरा यह कि कदाचित् कुछ सिद्धान्त सांख्यशास्त्र से ले कर वेदान्तियों ने उन्हे वेदान्त के अनुकूल स्वरूप दे दिया हो।

तीसरा यह कि प्राचीन वेदान्त के सिद्धान्तों में ही कपिलाचार्य ने अपने मत के अनुसार कुछ परिवर्तन और सुधार करके सांख्यशास्त्र की उत्‍पत्ति कर दी हो। इन तीनों में से तीसरी बात ही अधिक विश्‍वसनीय ज्ञात होती है, क्योंकि यद्यपि वेदान्त और सांख्य दोनों बहुत प्राचीन हैं, तथापि उनमें वेदान्त या उपनिषद सांख्य से भी अधिक प्राचीन (श्रौत) हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ’प्रकृति और पुरुष, दोनों की अनादि जानो ।’
  2. गीता 13.19
  3. वे.सू. 2. 1.12 और 2.2.17

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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