गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
पन्द्रहवां अध्याय
रात को श्री भगवान बोले - इस संसार को दो तरह देखा जा सकता है -
वह दूसरे प्रकार का संसार-वृक्ष है। उसने यद्यपि जड़ गहरी पकड़ी है, तथापि उसे असहकार रूपी शास्त्र से काटना चाहिए कि जिससे आत्मा को वह लोक-प्राप्त हो सके, जहाँ से उसे वापस चक्कर न करना पड़े। ऐसा करने के लिए वह निरंतर उस आदि- पुरुष को भजे कि जिसकी माया से यह पुरानी प्रवृत्ति पसरी हुई है। जिन्होंने मान-मोह को छोड़ दिया है, जिन्होंने संग-दोष को जीत लिया, जो आत्मा में लीन हैं, जो विषयों से अलग हो गये हैं, जिन्हें सुख-दु:ख समान है, वह ज्ञानी उस अव्यय पद को पाते हैं। इस जगह सूर्य की या चंद्र को या अग्नि को तेज पहुँचाने की जरूरत नहीं पड़ती। जहाँ जाने के बाद लौटना नहीं रह जाता, वह मेरा परमधाम है। जीव लोक में मेरा सनातन अंश जीव रूप में, प्रकृति में विद्यमान मन सहित छ: इंद्रियों को, आकर्षित करता है। जब जीव देह धारण करता है और तजता है तब, जैसे वायु अपने स्थल से गंधों को साथ लिये चलता है, यह जीव भी इंद्रियों को साथ लिये हुए विचरता है। कान, आंख, त्वचा, जीभ और नाक तथा मन इतनों का सहारा लेकर जीव विषयों का सेवन करता है। गति करते हुए, स्थिर, रहते, हुए या भोग हुए गुणों- वाले इस जीव को मोह में पड़े हुए अज्ञानी पहचानते नहीं, ज्ञानी पहचानते हैं। यत्न करने वाले योगी अपने में विद्यमान उस जीव को पहचानते हैं, पर समभाव रूपी योग को नहीं साधा है, वह यत्न करता हुआ भी उसे पहचानता नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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