गीता माता -महात्मा गांधी
13 : अहिंसा परमोधर्म:
‘‘असल में, क्रिश्चियैनिटी की वास्तविक किन्तु कठिन शिक्षा यही मालूम पड़ती है कि समाज को अपने शत्रुओं से लड़ना चाहिए, पर साथ ही, उनसे प्रेम भी करना चाहिए। ‘‘मिस्टर गांधी भी इस बात पर खास तौर से ध्यान दें कि गीता की भी साफ-साफ यही शिक्षा है। कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि विजय उसे ही मिलती है, जो पूर्णतया निर्भय और निर्वैर होकर लड़ता है। सचमुच, इस महाकाव्य के द्वितीय अध्याय ने एक विवेकशील युद्धविरोधी तथा एक सच्चे योद्धा के बीच, सर्वोच्च भूमिका पर सोचने पर भी, सारा विवाद खत्म कर दिया है। स्थानाभाव के कारण, हम उनमें से अधिक उद्धरण तो नहीं दे सकते; पर वह सारा काव्य[1] एक बार नहीं, इन लेखों का लेखक शायद यह नहीं जानता कि आतंकवादियों ने भी इन्ही श्लोकों का हवाला दिया है। सच्ची बात तो यह है कि निर्विकार चित्त से पढ़ने पर मुझे तो भगवद्गीता में इस लेखक ने जो अर्थ लगाया है, उससे ठीक विपरीत अर्थ मिला है। वह भूल जाता है कि पश्चिम में युद्ध-विरोधी जिस अर्थ में विवेकशील कहे जाते हैं, वैसा अर्जुन नहीं था। अर्जुन तो युद्ध का हिमायती था। कौरवों की सेना से पहले वह कई बार लोहा ले चुका था। उसके हाथ-पैर तो तब ढीले पड़ गये, जब उसने दोनों सेनाओं को युद्ध के लिए तैयार देखा और उनमें अपने प्यारे-से-प्यारे स्वजनों तथा पूज्य गुरुजनों को पाया। न तो वहाँ मानवता के प्रति प्रेम था और न युद्ध के प्रति घृणा ही थी, जिससे प्रेरित होकर अर्जुन ने कृष्ण से वे प्रश्न पूछे थे और कृष्ण भी ऐसी परिस्थिति में दूसरा कोई उत्तर दे ही नहीं सकते थे। महाभारत तो रत्नों की एक खान है, जिनमें से गीता केवल एक किन्तु सबसे अधिक देदीप्यमान रत्न है। लिखा है कि उस युद्ध में लाखों योद्धा एकत्र हुए थे और दोनों तरफ से अवर्णनीय अमानुषिकताएं बरती गईं थीं इनमें लाखों की सेना में से केवल सात को जीवित रखकर तथा उन्हें वह निःसार विजय प्रदान करके इस महाकाव्य के अमर कवि ने तो युद्ध की निरर्थकता ही सिद्ध की है; किन्तु युद्ध को केवल एक मूर्खतापूर्ण धोखे की चीज सिद्ध करने के अलावा भी, महाभारत एक उससे भी ऊंचा संदेश हमें देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता
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