गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 262

गीता माता -महात्मा गांधी

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9 : भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग


गीता पढ़ते, विचारते और उसका अनुसरण करते हुए अब मुझे चालीस साल से ज्यादा हो चुके हैं। मित्रों ने यह इच्छा प्रकट की थी कि मैं जनता को बताऊं कि मैंने गीता को किस रूप में समझा है। फलतः मैंने अनुवाद शुरू किया।[1] विद्वान की दृष्टि से देखने बैठूँ तो अनुवाद करने की मेरी अपनी योग्यता कुछ भी नहीं ठहरती। हां, आचरण करने वाले की दृष्टि से ठीक-ठीक मानी जा सकती है। यह अनुवाद अब छपा है। बहुतेरी गीताओं के साथ संस्कृत भी होती है। इसमें जान-बूझकर संस्कृत नहीं रखी संस्कृत सब जाने, समझें तो मुझे अच्छा लगे; लेकिन सब संस्कृत कभी जानेंगे नहीं और संस्कृत के तो अनेक सस्ते संस्करण मिल सकते हैं। इसलिए संस्कृत छोड़कर आकार और कीमत बचाने का निश्चय किया। अतएव 18 सफों की प्रस्तावना और 191 सफों के अनुवाद वाला जेबी संस्करण छपवाया है। इसकी कीमत दो आना रखी है।

मेरा लोभ तो यह है कि हर एक हिन्दी भाषा - भाषी इस गीता को पढ़े, विचारे और वैसा आचरण करे। इसके विचार का सरल उपाय यह है कि संस्कृत का ख्याल किये बिना ही इसके अर्थ को समझने का प्रयत्न किया जाये और फिर तदानुसार आचरण किया जाये। मसलन जो यह कहते हैं कि गीता तो अपने-पराये का भेद रखे बिना दुष्टों को संहार करने की शिक्षा देती है, उन्हें अपने दुष्ट मामा-पिता या अन्य प्रियजनों का संहार शुरू कर देना चाहिए। पर वे वैसा तो कर नहीं सकते तो फिर जहाँ संहार का जिक़्र आता है, वहाँ उसका कोई दूसरा अर्थ होना संभव है, यह बात पाठकों को सहज ही सूझेगी।

अपने-पराये के बीच भेद न रखने की बात तो गीता के पन्ने-पन्ने में आती हैं। पर यह कैसे हो सकता है? यों सोचते-सोचते हम इस निश्चय पर पहुँचेंगे कि अनासक्तिपूर्वक सब काम करना ही गीता की प्रधान ध्वनि है; क्योंकि पहले ही अध्याय में अर्जुन के सामने अपने-पराये का झगड़ा खड़ा होता है। गीता के प्रत्येक अध्याय में यह बताया गया है कि ऐसा भेद मिथ्या और हानिकारक है। गीता को मैने ‘अनासक्तियोग‘ का नाम दिया है। यह क्या है, कैसे सिद्ध हो सकता है, अनासक्ति के लक्षण क्या हैं आदि तमाम बातों का जवाब इस पुस्तक में है। गीता का अनुसरण करते हुए मै इस युद्ध को प्रारंभ किये बिना न रह सका एक मित्र के शब्दों में, 'मेरे मन का यह युद्ध धर्मयुद्ध है' और ठीक इस आखिरी फैसले के मौके पर इस पुस्तक का प्रकाशित होना मेरे लिए शुभ शकुन है।

22 मई, 1930

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो ‘अनासक्तियोग' नाम से छपा है।

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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