गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 250

गीता माता -महात्मा गांधी

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5 : गीता पर आस्था


फिर एक ‘विशाल बुद्धि’ पुरुष-गीता का प्रणेता उत्पन्न हुआ। उसने हिन्दू-समाज को गहरे तत्त्वज्ञान से भरा और साथ ही हिन्दू-धर्म का ऐसा दोहन अर्पित किया कि जो मुग्ध जिज्ञासु को सहज ही समझ में आ सकता है। हिन्दू-धर्म का अध्ययन करने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक हिन्दू के लिए यह एकमात्र सुलभ ग्रंथ है और यदि अन्य सभी धर्मशास्त्र जलकर भस्म हो जाये तब भी इस अमर ग्रंथ के सात सौ श्लोक यह बताने के लिए पर्याप्त होंगे कि हिन्दू-धर्म क्या है और उसे जीवन में किस प्रकार उतारा जाये।

मैं सनातनी होने का दावा करता हूँ; क्योंकि चालीस वर्षो से उस ग्रंथ के उपदेशों को जीवन में अक्षरशः उतारने का मैं प्रयत्न करता आया हूँ। गीता के मुख्य सिद्धान्त के विपरीत जो कुछ भी हो, उसे मैं हिन्दू-धर्म का विरोधी मानकर अस्वीकार करता हूँ। गीता में किसी भी धर्म या धर्म-गुरु के प्रति द्वेष नहीं। मुझे यह कहते बड़ा आनंद होता है कि मैंने गीता के प्रति जितना पूज्य भाव रखा है, उतने ही पूज्य भाव से मैंने बाइविल, कुरान, जंदअवस्ता और संसार के अन्य धर्म-ग्रंथ पढ़े हैं।

इस वाचन ने गीता के प्रति मेरी श्रद्धा को दृढ़ बनाया है। उससे मेरी दृष्टि और उससे मेरा हिन्दू धर्म विशाल हुआ है। जैसे कि जरथुस्त्र, ईसा और मुहम्मद के जीवन-चरित्र को मैंने समझा है, वैसे ही गीता के बहुत से वचनों पर मैंने प्रकाश डाला है। इससे इन सनातनी मित्रों ने मुझे जो ताना दिया है, वह मेरे लिए तो आश्वासन का कारण बन गया है। मैं अपने को हिन्दू कहने में गौरव मानता हूँ; क्योंकि मेरे मन में यह शब्द इतना विशाल है कि पृथ्वी के चारों कोनों के पैगंबरों के प्रति यह केवल सहिष्णुता ही नहीं रखता, वरन् उन्हें आत्मसात कर लेता है।

इस जीवन-संहिता में कहीं भी अस्पृश्यता को स्थान हो, ऐसा मैं नहीं देखता। इसके विपरीत, लौहा-चुंबक के समान चित्त आकर्षक वाणी में मेरी बुद्वि को स्पर्श करके और इसके भी आगे मेरे हृदय को पूर्णतया स्पर्श करके मेरे मन में यह आस्था उत्पन्न करती है कि भूतमात्र एकरूप है, वे सभी ईश्वर में से निकले हैं और उसी में विलीन हो जानेवाले हैं। भगवद्गीता माता द्वारा उपदिष्ट सनातन धर्म के अनुसार जीवन का साफल्य बाह्य आचार और कर्मकांड में नहीं, वरन् सम्पूर्ण चित्त-शुद्धि में और शरीर, मन और आत्मासहित समग्र व्यक्तित्व को परब्रह्म के साथ एकाकार कर देने में है।

गीता के इस संदेश को अपने जीवन में ओत-प्रोत करके मैं करोडों की मानव मेदिनी के पास गया हूँ और उन्होंने मेरी बातें सुनी हैं, सो मेरी राजनीतिज्ञता के कारण अथवा मेरी वाणी की छटा के कारण नहीं, बल्कि मेरा विश्वास है कि मुझे अपने धर्म का मानकर सुनी हैं। समय के साथ-साथ मेरी यह श्रद्धा अधिकाधिक दृढ़ होती गई कि मैं सनातन-धर्मी होने का दावा करूं; यह चीज गलत नहीं और यदि ईश्वर की इच्छा होगी तो वह मुझे इस दावे पर मेरी मृत्यु की मुहर लगा लेने देगा।

‘महादेवभाईनी डायरी,'

भाग 2, पृष्ठ 435

4 नवम्बर,1932

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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