गीता माता -महात्मा गांधी
3 : गीता का अध्ययन
सुबह का दतौन और स्नान के समय मैं गीताजी कंठ करने में लगाता। दातौन में 15 और स्नान में 20 मिनट लगते। दातौन अंग्रेजी रिवाज के मुताबिक खड़े-खड़े करता। सामने दीवार पर गीता जी के श्लोक लिखकर चिपका देता और उन्हें देख-देखकर रटता रहता। इस तरह रटे हुए श्लोक स्नान करने तक पक्के हो जाते। बीच में पिछले श्लोकों को भी दुहरा जाता। इस प्रकार मुझे याद पड़ता है कि 13 अध्याय तक गीता कंठ कर ली थी, पर बाद में काम की झंझटें बढ़ गईं। सत्याग्रह का जन्म हो गया और उस बालक की परिवरिश का भार मुझ पर आ पड़ा, जिससे विचार करने का समय भी उसके लालन-पालन में बीता और कह सकते हैं कि अब भी बीत रहा है। गीता-पाठ का असर मेरे सहाध्यायियों पर तो कुछ पड़ा हो, वह वही बता सकते हैं, किन्तु मेरे लिए तो गीता आचार की एक प्रौढ़ मार्गदर्शिका बन गई है। वह मेरा धार्मिक कोश हो गई है। अपरिचित अंग्रेजी शब्द के हिज्जे या अर्थ को देखने के लिए जिस तरह मैं अंग्रेजी कोश को खोलता, उसी तरह आचार-संबंधी कठिनाइयों और उसकी अटपटी गुत्थियों को गीता जी के द्वारा सुलझाता। उसके अपरिग्रह, समभाव इत्यादि शब्दों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। यही धुन रहने लगी कि समभाव कैसे प्राप्त करूँ, कैसे उसका पालन करूँ? जो अधिकारी हमारा अपमान करे, जो रिश्वतखोर हैं, रास्ते चलते जो विरोध करते हैं जो कल के साथी हैं, उनमें और उन सज्जनों में, जिन्होंने हम पर भारी उपकार किया है, क्या कुछ भेद नहीं है? अपरिग्रह का पालन किस स्त्री-पुरुष आदि यदि परिग्रह नहीं तो फिर क्या है? क्या पुस्तकों से भरी इन अलमारियों में आग लगा दूं? पर यह तो घर जलाकर तीर्थ करना हुआ। अन्दर से तुरंत उत्तर मिला, ‘‘हां, घरबार को खाक किये बिना तीर्थ नहीं किया जा सकता।’’ इसमें अंग्रेजी क़ानून के अध्ययन ने मेरी सहायता की। स्नेल-रचित क़ानून के सिद्धान्तों की चर्चा याद आई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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