गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 18

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
पांचवां अध्‍याय


अर्जुन कहता है, ʻʻआप ज्ञान को विशेष बतलाते हैं। इससे मैं समझता हूँ कि कर्म करने की आवश्‍यकता नहीं है, संन्‍यास ही अच्‍छा है। पर फिर आप कर्म की भी स्तुति करते हैं, तब यह लगता है कि योग ही अच्‍छा है। इन दोनों में अधिक अच्‍छा क्‍या है, यह मुझको निश्‍चयपूर्वक कहिये। तभी मुझे कुछ शांति मिल सकती है।ʼʼ

यह सुनकर भगवान बोले, ʻʻसंन्‍यास अर्थात ज्ञान और कर्मयोग अर्थात निष्‍काम कर्म, ये दोनों अच्‍छे हैं, पर यदि तुझे चुनाव ही करना है तो मैं कहता हूँ कि योग अर्थात अनासक्ति- पूर्वक कर्म अधिक अच्‍छा है। जो मनुष्‍य किसी वस्‍तु या मनुष्‍य का न द्वेष करता है, न कोई इच्‍छा रखता है और सुख-दुख, सर्दी-गर्मी इत्‍यादि द्वंद्वों से परे रहता है, वह संन्‍यासी ही है। फिर वह कर्म करता हो या न करता हो। ऐसा मनुष्‍य सहज में बंधन मुक्‍त हो जाता है। अज्ञानी ज्ञान और योग में भेद करता है, ज्ञानी नहीं। दोनों का परिणाम एक ही होता है, अर्थात दोनों को एक ही समझता है, क्‍योंकि शुद्ध ज्ञान वाले है, अर्थात दोनों को एक ही समझता है, क्‍योंकि शुद्ध ज्ञान वाले की संकल्‍प भर से कार्यसिद्धि होती है, अर्थात बाहरी कर्म करने की उसे जरूरत नहीं रहती।

जब जनकपुरी जल रही थी तब दूसरों का धर्म था कि जाकर आग बुझायें। जनक के संकल्‍प से ही उनका आग बुझाने का कर्तव्‍य पूरा हो रहा था, क्‍योंकि उनके सेवक उनके अधीन थे। यदि वह घड़ा भर पानी लेकर दौड़ते तो कुल चौपट कर देते। दूसरे लोग उनकी ओर ताकते रहते और अपना कर्त्तव्‍य बिसर जाते और विशेष भलमनसी दिखाते तो हक्‍के–बक्‍के होकर जनक की रक्षा करने दौड़ते।

पर झटपट जनक नहीं बन सकते। जनक की स्थिति बड़ी दुर्लभ है। करोड़ों में से किसी को अनेक जन्‍मों की सेवा से वह प्राप्‍त हो सकती है। यह भी नहीं है कि इसकी प्राप्ति पर कोई विशेष शांति हो। उत्तरोत्तर निष्‍काम कर्म करते मनुष्‍य का संकल्‍प-बल बढ़ता जाता है और बाहरी कर्म कम होते जाते हैं। कहा जा सकता है कि वास्‍तव में देखने पर उसे इसका पता भी नहीं चलता। इसके लिए उसका प्रयत्‍न भी नहीं होता। वह तो सेवा-कार्य में ही डूबा रहता है। उससे उसकी सेवा-शक्ति इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उसे सेवा से कोई थकान आती नहीं जान पड़ती। इससे अंत में उसके संकल्‍प में ही सेवा आ जाती है, वैसे ही जैसे बहुत जोर से गति करती हुई वस्‍तु स्थिर-सी लगती है, ऐसा मनुष्‍य कुछ करता नहीं है, यह कहना प्रत्‍यक्ष रूप से अयुक्‍त है। पर ऐसी स्थिति साधारणत: कल्‍पना की वस्‍तु है, अनुभव में नहीं आती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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