गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
पांचवां अध्याय
यह सुनकर भगवान बोले, ʻʻसंन्यास अर्थात ज्ञान और कर्मयोग अर्थात निष्काम कर्म, ये दोनों अच्छे हैं, पर यदि तुझे चुनाव ही करना है तो मैं कहता हूँ कि योग अर्थात अनासक्ति- पूर्वक कर्म अधिक अच्छा है। जो मनुष्य किसी वस्तु या मनुष्य का न द्वेष करता है, न कोई इच्छा रखता है और सुख-दुख, सर्दी-गर्मी इत्यादि द्वंद्वों से परे रहता है, वह संन्यासी ही है। फिर वह कर्म करता हो या न करता हो। ऐसा मनुष्य सहज में बंधन मुक्त हो जाता है। अज्ञानी ज्ञान और योग में भेद करता है, ज्ञानी नहीं। दोनों का परिणाम एक ही होता है, अर्थात दोनों को एक ही समझता है, क्योंकि शुद्ध ज्ञान वाले है, अर्थात दोनों को एक ही समझता है, क्योंकि शुद्ध ज्ञान वाले की संकल्प भर से कार्यसिद्धि होती है, अर्थात बाहरी कर्म करने की उसे जरूरत नहीं रहती। जब जनकपुरी जल रही थी तब दूसरों का धर्म था कि जाकर आग बुझायें। जनक के संकल्प से ही उनका आग बुझाने का कर्तव्य पूरा हो रहा था, क्योंकि उनके सेवक उनके अधीन थे। यदि वह घड़ा भर पानी लेकर दौड़ते तो कुल चौपट कर देते। दूसरे लोग उनकी ओर ताकते रहते और अपना कर्त्तव्य बिसर जाते और विशेष भलमनसी दिखाते तो हक्के–बक्के होकर जनक की रक्षा करने दौड़ते। पर झटपट जनक नहीं बन सकते। जनक की स्थिति बड़ी दुर्लभ है। करोड़ों में से किसी को अनेक जन्मों की सेवा से वह प्राप्त हो सकती है। यह भी नहीं है कि इसकी प्राप्ति पर कोई विशेष शांति हो। उत्तरोत्तर निष्काम कर्म करते मनुष्य का संकल्प-बल बढ़ता जाता है और बाहरी कर्म कम होते जाते हैं। कहा जा सकता है कि वास्तव में देखने पर उसे इसका पता भी नहीं चलता। इसके लिए उसका प्रयत्न भी नहीं होता। वह तो सेवा-कार्य में ही डूबा रहता है। उससे उसकी सेवा-शक्ति इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उसे सेवा से कोई थकान आती नहीं जान पड़ती। इससे अंत में उसके संकल्प में ही सेवा आ जाती है, वैसे ही जैसे बहुत जोर से गति करती हुई वस्तु स्थिर-सी लगती है, ऐसा मनुष्य कुछ करता नहीं है, यह कहना प्रत्यक्ष रूप से अयुक्त है। पर ऐसी स्थिति साधारणत: कल्पना की वस्तु है, अनुभव में नहीं आती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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