गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द8.सांख्य और योग
पतंजलि का योगदर्शन राजयोग की केवल एक आत्मनिष्ठ प्रणाली है, एक आंतरिक अनुशासन है, एक नपी-तुली पद्धति है, एक बंधा हुआ कठोर साधन सूत्र है, जिसमें उत्तरोत्तर चढ़ता हुआ एक कठोर शास्त्रीय साधन क्रम है, जिसके द्वारा मन को निस्तब्ध करके समाधि में पहुँचाया जाता है जिससे हमारे आत्म-अतिक्रमण के ऐहिक और परलौकिक, दोनों फल प्राप्त हों; ऐहिक, जीवन के ज्ञान और बल के अति विस्तार द्वारा और पारलौकिक, भगवान् के साथ एकता द्वारा। परंतु गीता का योग एक उदार,लचीली और बहुमुखी पद्धति है, जिसमें अनेक प्रकार के तत्त्वों का समावेश है, और ये स्तम्भ तत्त्व एक प्रकर के स्वाभाविक और सजीव साम्यकरण द्वारा गीता में समन्वित किये गये है; राजयोग तो इन तत्त्वों मे से केवल एक तत्त्व है और वह भी केई अत्यंत महत्त्वपूर्ण नहीं। गीता के योग में कोई नियमबद्ध और शास्त्रीय श्रेणीविभाग का विधान नहीं है, यह योग तो स्वाभाविक आत्म-विकस की प्रक्रिया है। गीता चाहती है कि अंदर की संतुलित अवस्था द्वारा और कर्म के कुछ सिद्धातों के अवलंबन द्वारा जीव का पुनरुद्धार करे, निम्न प्रकृति से दिव्य प्रकृति मे कोई परिवर्तन, आरोहण या नवजन्म लाये। इसी तरह इसका समाधि का विचार भी साधारणतया जो समाधि समझी जाती है उससे सर्वथा भिन्न है। पतंजलि योग में कर्म को एक प्रारंभिक महत्ता देते हैं जिसकी आवश्यकता केवल नैतिक शुद्धि और धार्मिक एकाग्रता के लिये है, पर गीता कर्म को योग का विशेष लक्षण तक मानती है पतंजलि कर्म को प्रारंभिक साधनमात्र मानते हैं और गीता में कर्म चिरंतन आधरभूत है। राजयोग में सिद्धि के मिलते ही कर्म को हटा देना पड़ता है या यह कहिये कि योग साधन के लिये उसकी आवश्यकता नहीं रहती और गीता में कर्म सवोच्च अवस्था मे पहुँचने का जहाँ साधन है वहाँ आत्मा के पूर्ण मोक्ष लाभ कर चुकने के बाद भी बना रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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