गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द7.आर्य क्षत्रिय -धर्म[1]
इसलिये यही उचित है कि वह दस दुर्बल और आत्मकेंद्रित दया तो त्यागकर अपने शत्रुओं का संहार करने के लिये उठ खड़ा हो। क्या हम कहेगें कि यह तो एक वीर का दूसरे वीर को वीरोचित उत्तर है, लेकिन ऐसा नहीं जिसकी हम भागवत गुरु से आशा करते हैं; क्योंकि ऐसे गुरु से तो यही आशा की जाती है कि वे सदा मृदुता, साधुता एवं आत्मत्याग के भावों को तथा सांसारिक ध्येयों और दुनियादारी से विरक्त के भाव को ही प्रोत्साहित करेगें। गीता स्पष्ट कहती है कि अर्जुन अवीरोचित दुर्बलता में जा पड़ा था, “उसके नेत्र आकुल और अश्रुपूर्ण हो गये थे, उसका हृदय विषाद से भर गया था,” कारण वह “ कृपाविष्ट ”-कृपा से आक्रांत-हो गया था। तब क्या यह दैवी दुर्बलता नहीं थी। कृपा क्या दैवी भावावेग नहीं है, इस प्रकार की कृपा को क्या ऐसी कड़ी फटकार के साथ निरूत्साहित करना चाहिये? अथवा हम किसी ऐसी शिक्षा के सामने तो नहीं आ पड़े जो केवल युद्ध और वीर कर्म का ही उपदेश देती हो, जो नीत्शे के सिद्धांत जैसी हो, जिसका ताकत और गर्वोन्मत्त बल ही एकमात्र धर्म है, जो इब्रानी और पुराने टयूटानिकों की कठोरता की तरह हो जिसमें कृपा एक दुर्बलता समझी जाती है और जो उस नारवेजियन वीर के भाव में चितंन करती है जो ईश्वर को इसलिये धन्यवाद देता था कि उसने उसको एक कठोर हृदय दिया था? परंतु गीता उपदेश भारतीय धर्म से निकला है और भारतीयों के लिये करुणा सदा से ही दैवी प्रकृति का एक प्रधान अंग मानी गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता,द्वितीय अध्याय 1-38
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