गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
13.क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ[1]
ईश्वर, परा और अपरा प्रकृति में भेद, सर्वोत्पादक तथा सर्वमय प्रकृतिस्थ परमेश्वर का साक्षात्कार, सर्वभूतों में अवस्थित एकमेव-इन्हीं को अगले छः अध्यायों (7-12) में प्रधानता दी गयी है ताकि ज्ञान के साथ कर्म और भक्ति का मूल एकत्व संस्थापित किया जा सके। परंतु अब परम पुरुष, अक्षर आत्मा, जीव तथा कर्मशील त्रिगुणत्मिका प्रकृति के यथार्थ संबंधों को अधिक सुनिश्चित रूप में प्रकट करना आवश्यक है। अतएव अर्जुन से एक प्रश्न कराया जाता जो अभीतक अस्पष्ट से रहे हुए इन विषयों पर अधिक विशद् प्रकाश डालने का अवसर उपस्थित करे। वह प्रश्न करता है पुरुष और प्रकृति के विषय में और यह जानना चाहता है कि प्रकृति का यह क्षेत्र क्या है, इसका ज्ञाता कौंन है, ज्ञान क्या है और उस ज्ञान का ज्ञेय कौन है। इस प्रकरण में आत्मा और जगत के उस समस्त ज्ञान का सार निहित है जिसकी आत्मा को अब भी आवश्यकता है यदि उसे अपने प्राकृत अज्ञान का उन्मूलन करना तथा ज्ञान, जीवन और कर्म-कलाप के, एवं इन वस्तुओं में विद्यमान भगवान् के साथ अपने संबंधों के समुचित उपयोग को आपना आधार बनाकर जगत के सनातन आत्मा के साथ अपनी सत्ता के एकत्व की ओर आरोहण करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता, अध्याय 13
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