गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
8. भगवान् और संभूति–शक्ति
अहंकार के चारों ओर बने हुए प्राकृत पृथक् व्यष्टित्व को मिटाने के लिये दार्शनिकों का वेदांत स्वीकृत किया गया है। क्षुद्र व्यष्टिभाव की जगह विशाल निर्व्यष्टिक भाव को बिठाने के लिये, पृथक्ता के भ्रम को ब्रह्म के एकत्व की अनुभूति से नष्ट करने और अहंकार की अंध दृष्टि के स्थान में सब पदार्थों को एकमेव आत्मा के अंदर और एकमेव आत्मा को सब पदार्थों के अंदर देखने की विमल दृष्टि ले आने के लिये वेदांत की प्रक्रिया का प्रयोग किया गया है। इसकी पूर्णता उन परब्रह्म का समग्र दर्शन कराकर साधित की गयी है जिन परब्रह्म से ही समस्त चर-अचर, क्षर-अक्षर, प्रवृत्ति-निवृत्ति, की उत्पत्ति होती है। इसकी जो संभावित सीमाएं हैं उन्हें, उन परम पुरुष परमेश्वर का, जो समस्त प्रकृति में सब कुछ स्वयं होते हैं, स्वयं सब व्यष्टि जीवों के रूप में अपने-आपको प्रकट करते और समत्स कर्मों में अपनी भगवती शक्ति लगाते हैं, अपने अत्यंत समीप होना प्रकट करके पार किया गया है। मन, बुद्धि हृदय, और समस्त अंतःकरण को प्रकृति के प्रभु परमेश्वर की सेवा में समर्पित करने के लिये योगशास्त्र का ग्रहण किया गया है। इसकी पूर्णता जगत् और जीवन के उन परम प्रभु को, जिनका यह प्रकृतिस्थ जीव सनातन अंश है, आदि सत्ता बनाकर साधित की गयी हैं और पूर्ण, आत्मैक्य के प्रकाश में जीव का यह देख पाना कि सब पदार्थ भवद्रूप हैं, इससे योगशास्त्र की संभावित परच्छिन्नताओं और सीमाओं को पार किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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