गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2. भक्ति -ज्ञान -समन्वय[1]
वही पराप्रकृति का आंतरिक कर्म सदा भागवत कर्म ही होता है इस परा भागवती प्रकृति की शक्ति ही अर्थात् परम पुरुष की सत्ता की चिन्मयी संकल्पशक्ति ही जीव के विशेष स्वरूप-गुण की विविध बीजभूत और आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अपने-आपको प्रकट करती है; यही बीजभूत शक्ति जीव का स्वभाव है। इस आध्यात्मिक शक्ति से ही सीधे जो कर्म और जन्म होता है वह दिव्य जन्म और विशुद्ध आध्यात्मिक कर्म होता है अतः इससे यह निष्कर्ष निकला कि कर्म करते हुए जीव का यही प्रयास होना चाहिये कि वह अपने मूल आध्यात्मिक व्यष्टि-स्वरूप को प्राप्त हो और अपने कर्मों को उसी की परमा शक्ति के ओज से प्रवाहित करे, कर्म को अपनी अंतरात्मा और अंतरतम स्वरूप-शक्ति से विकसित करे, न कि मन-बुद्धि की कल्पना और प्राणों की इच्छा से, और इस तरह अपने सब कर्मों को परम पुरुष के संकल्प का ही विशुद्ध प्रवाह बना दे, अपने सारे जीवन को भगवत-स्वभाव का गतिशील प्रतीक बना दे। परंतु इसके साथ ही यह त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति भी है जो अज्ञान- विशिष्ट है और उसका कर्म अज्ञान-विशिष्ट, अशुद्ध, उलझा हुआ और विकृत होता है; यह निम्नतर व्यक्तित्व का, अहंकार का, प्राकृत पुरुष का कर्म होता है, आध्यात्मिक व्यष्टि-पुरुष का नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता अध्याय 7 श्लोक 15 – 27
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