गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द22.त्रैगुणातीत्य
भूतकाल के बारे में हमें ऐसा लगता है कि वह तो मरकर खतम हो गया। हम ऐसे बोलते और कहते हैं मानो इस विशुद्ध और अछूते क्षण में हम अपने साथ जो चाहें करने के लिये स्वाधीन हैं और ऐसा करते हुए हम अपनी पसंद की आंतरिक स्वाधीनता का पूर्ण उपयोग करते हैं। परंतु इस तरह की कोई पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है, हमारी पसंद के लिये ऐसी कोई स्वाधीनता नहीं है। हमारी इच्छा को सदा ही कतिपय संभावनाओं में से कुछ का चुनाव करना पड़ता है, क्योंकि प्रकृति के काम करने का यही तरीका है; यहाँ तक कि हमारी निश्चेष्टता, किसी प्रकार की इच्छा करने से इंकार करना भी एक चुनाव है, प्रकृति की हममें जो इच्छा-शक्ति है उसका वह एक कर्म ही है; परमाणु में भी एक इच्छा-शक्ति सदा काम करती है। अंतर केवल यही है कि कौंन कहांतक प्रकृति की इस इच्छा-शक्ति के साथ अपने-आपको जोड़ता है। जब हम अपने-आपको उसके साथ जोड़ लेते हैं तब यह सोचने लगते हैं कि यह इच्छा हमारी है और यह कहने लगते हैं कि यह एक स्वाधीनता इच्छा है, हम ही कर्ता हैं। यह चाहे भूल हो या न हो, भ्रम हो या न हो, अपनी इच्छा अपने कर्म की भावना सर्वथा निरर्थक या निरुपयोगी नहीं है, क्योंकि प्रकृति के अंदर जो कुछ है उसकी एक सार्थकता और उपयोगिता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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