गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द21.प्रकृति का नियतिवाद
इस ग्रंथि को तोड़ना, अपने कर्मों का केन्द्र और भोक्ता इस अहं को न बने रहने देना, बल्कि परम दिव्य महान् आत्मा से सब कुछ प्राप्त करना और सब कुछ उसीको निवेदन करना-यही प्रकृति के गुणों के चंचल विक्षोभ से ऊपर उठने का रास्ता है। कारण इस अवस्था का अर्थ त्रिगुण के विषम खेल में निवास करना नहीं जो ऐक्यहीन खोज और प्रयास है, एक विक्षोभ है, माया है बल्कि परम चेतना में निवास करना है, सम और एकीकृत दिव्य संकल्प एवं शक्ति के अंदर रहकर कर्म करना है, अहंबुद्धि जिसका अपकर्ष है। कुछ लोगों ने उन श्लोकों का, जिनमें गीता ने अहमात्मक जीव के प्रकृतिवश होने पर जोर दिया है, ऐसा अर्थ लगाया है मानो वहाँ ऐसे निरंकुश यांत्रिक नियतिवाद का निरूपण है जो इस जगत् में रहते किसी स्वाधीनता के लिये कोई गुंजायश नहीं छोड़ता। निश्चय ही उन श्लोकों की भाषा बहुत जोरदार है, और सुनिश्चित मालूम होती है। परंतु अन्य स्थानों की तरह यहाँ भी, गीता के विचार को उसके समग्र रूप में ग्रहण करना चाहिये और किसी एक वाक्य को, अन्य वाक्य के साथ के संबंध से सर्वथा अलग करके, सब कुछ नहीं मान लेना चाहिये। क्योंकि वास्तव में प्रत्येक सत्य, वह अपने-आपमें कितना ही दुरूस्त क्यों न हो, अन्य सत्यों से, जो उसे मर्यादित करते हुए भी परिपूर्ण करते हैं, अलग कर दिया जाये, तो बुद्धि को फंसाने वाला जाल और मन को भरमाने वाला मत बन जाता है, क्योंकि यथार्थ में प्रत्येक सत्य संमिश्रित पट का एक तंतु है और कोई भी तंतु उस समग्र पट से अलग नहीं किया जा सकता। इसी तरह गीता में सब बातें एक-दूसरे से बुनी हुई हैं अतः उसकी हर बात को संपूर्ण कलेवर के साथ मिलाकर ही समझना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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