गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द20.समत्व और ज्ञान
गीता जिस ज्ञान की बात कहती है वह मन की बौद्धिक क्रिया नहीं है, गीता का ज्ञान है सत्यस्वरूप दिव्य सूर्य के प्रकाश के उद्भासन के द्वारा सत्ता की उच्चतम अवस्था में संवर्द्धन है। यह सत्य, यह सूर्य वही है और हमारे अज्ञान-अंधकार के भीतर छिपा हुआ है जिसके बारे में ऋग्वेद कहता है, अक्षर ब्रह्म इस द्वन्द्वमय विक्षुब्ध निम्न प्रकृति के ऊपर आत्मा के व्योम में विराजमान है, निम्न प्रकृति के पास पाप-पुण्य उसे स्पर्श नहीं करते, वह हमारे धर्म-अधर्म की भावना को स्वीकार नहीं करता, इनके सुख और दुःख उसे स्पर्श नहीं करते, वह हमारी सफलता की खुशी और विफलता के शोक के प्रति उदासीन रहता है, वह सबका स्वामी है, प्रभु है, विभु है, स्थिर, समर्थ और शुद्ध है, सबके प्रति सम है। वह प्रकृति का मूल है, हमारे कर्मों का प्रत्यक्ष कर्ता नहीं बल्कि प्रकृति और उसके कर्मों का साक्षी है, वह हम पर कर्ता होने का भ्रम आरोपित नहीं करता, क्योंकि यह भ्रम तो निम्न प्रकृति के अज्ञान का परिणाम है। परंतु हम इस मुक्ति, प्रभुता और विशुद्धता को नहीं देख पाते; क्योंकि हम प्राकृतिक अज्ञान के कारण विमूढ़ हुए रहते हैं और यह अज्ञान हमारे अंदर कूटस्थ ब्रह्म के सनातन आत्मज्ञान को हमसे छिपाये रहता है। पर जो इस ज्ञान का लगातार अनुसंधान करते हैं उन्हें इसकी प्राप्ति होती है और यह ज्ञान उनके प्राकृतिक अज्ञान को दूर कर देता है; यह बहुत काल से छिपे हुए सूर्य की तरह उद्भाषित होता है और हमारी दृष्टि के सामने उस परम आत्मसत्ता को प्रकाशित कर देता है जो इस निम्न जीवन के द्वन्द्व के परे है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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