गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
इसीलिये गीता में कर्मयोग के जो तत्त्व बतलाये गये हें उनमें समत्व को इतना अधिक महत्त्व दिया गया है ; वह जगत् के साथ मुक्त संबंध को जोड़ने वाली गांठ है। आत्मज्ञान, निष्कामता, नैर्व्यक्तिकता, आनंद, निस्त्रैगुण्य, ये सब जब अंतर्मुख, अपने-आपमें लवलीन और निष्क्रिय हों तो इन्हें समत्व की कोई आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि वहाँ उन पदार्थों का मान ही नहीं जिनमें सम-विषम का द्वन्द्व उत्पन्न होता है। परंतु ज्यों ही आत्मा प्रकृतिकर्म के बहुत्वों, व्यक्तित्वों, विभेदों और विषमताओं का मान करके उनसे व्यवहार करने लगती है त्यों ही उसे अपने युक्त स्वरूप के इन अन्य लक्षणों को व्यवहार में लाने के लिये अपने अद्वितीय प्रकट चिहृ समत्व का आश्रय लेना पड़ता है। ज्ञान है एकमेवाद्वितीय के साथ एकता का बोध और इसे जगत् की नानाविध सत्ताओं और अस्तित्वों के साथ अपने संबंध में यह प्रकट करना होगा कि यह सबके साथ समान रूप से एक है। नैर्व्यक्तिकता है एक अक्षर आत्मा की संसार में अपने नानाविध व्यक्तित्वों की विभिन्नता से श्रेष्ठता और इसे जगत् के व्यक्तित्वों के व्यवहार में यह प्रकट करना होगा कि इसकी क्रिया सबके साथ समान रूप से और निष्पक्ष भाव से होती है, फिर विविध संबंधों और परिस्थितियों के अंतर्गत होने के कारण इस क्रिया के बाह्य रूप चाहे अनेक प्रकार के क्यों न हों। इसलिये श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि मेरा न कोई प्रिय है न किसी से द्वेष, मैं सबके लिये आत्माभाव में सम हूं; फिर भी ईश्वर-प्रेमी मेरी कृपा को विशेष रूप से पाता है; क्योंकि उसने मेरे साथ संबध स्थापित कर लिया है, और यद्यपि मैं सबका एक ही निष्पक्ष ईश्वर हूँ फिर भी मुझसे जो जैसे मिलता है, और उससे मैं वैसे ही मिलता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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