गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द18.दिव्य कर्मी
कर्म क्या है इसको जानना होगा, विकर्म क्या है इसको भी जनाना होगा और अकर्म क्या है यह भी जान लेना होगा; कर्म की गति गहन है।” [1] संसार में कर्म जंगल-सा है, जिसमें मनुष्य अपने काल की विचारधारा, अपने व्यक्तित्व के मानदंड और अपनी परिस्थिति के अनुसार लुढ़कता-पुढ़कता चलता है; और ये विचार और मान शासक एक ही काल या एक ही व्यक्तित्व को नहीं, बल्कि अनेक कालों और व्यक्तित्वों को लिये हुए होते हैं, अनेक सामाजिक अवस्थाओं के विचार और नीति-धर्म तह-पर-तह जमकर आपस में बंधे होते और यद्यपि इनका दावा होता है कि ये निरपेक्ष ओर अविनाशी हैं फिर भी तात्कालिक और रूढ़िगत ही होते हैं, यद्यपि ये अपने को सद्युक्ति की तरह दिखाने का ढोंग करते हैं पर होते अशास्त्रीय और अयौक्तिक ही। इस सबके बीच सुनिश्चित कर्म-विधान के किसी महत्त्म आधार और मूल सत्य को ढूंढ़ता हुआ ज्ञानी अंत में ऐसी जगह जा पहुँचता है जहाँ यही अंतिम प्रश्न उसके सामने आता है कि यह सारा कर्म और जीवन केवल एक भ्रमजाल तो नहीं है और कर्म को सर्वथा परित्याग कर अकर्म को प्राप्त होना ही क्या इस थके हुए, भ्रांतियुक्त मानवजीव के लिये अंतिम आश्रय नहीं है। परंतु श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस बारे में ज्ञानी भी भ्रम में पड़ते और मोहित हो जाते हैं। क्योंकि ज्ञान और मोक्ष कर्म से मिलते हैं, अकर्म से नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.16,17
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