गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म
जिस संकट की अवस्था में अवतार का आभिभार्व होता है वह बाहरी नजर को महज घटनाओं और जड़ जगत् के महत् परिवर्तनों का नाजुक काल प्रतीत होता है। परंतु उसे स्त्रोत और वास्तविक अर्थ को देखें तो यह संकट मानव-चेतना में तब आता है जब उसका कोई महान परिवर्तन, कोई नवीन विकास होने वाला हो। इस परिवर्तन के लिये किसी दिव्य शक्ति की आवश्यकता होती है, किंतु शक्ति जिस चेतना में काम करती है उसके बल के अनुसार बदलती है; इसलिये मानव-मन और अंतरात्मा में भागवत चैतन्य का अविर्भाव आवश्यक होता है। जहाँ मुख्यतः बौद्धिक और लौकिक परिवर्तन करना हो वहीं अवतार के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती; मानव-चेतना का उत्थान होता है, शक्ति की महान अभिव्यक्ति होती है जिसके फलस्वरूप सामयिक तौर पर मनुष्य अपनी साधारण अवस्था से ऊपर उठ जाते हैं और चेतना और शक्ति की यह लहर कुछ असाधारण व्यक्त्यिों में तरंग-श्रंग बन जाती है और इन्हीं असाधारण व्यक्तियों को विभूति कहते हैं; इन विभूतियों का काम सर्वसाधारण मानवजाति के कर्म का नैतृत्व करना है और यह उद्दिष्ट परिवर्तन के लिये पर्याप्त होता है। यूरोपीय पुनर्निर्माण और फ्रांस की राज्य-क्रांति इसी प्रकार के संकट थे; महान् आध्यात्मिक घटनाएं, बल्कि बौद्धिक और लौकिक परिवर्तन थे। एक में धार्मिक तथा दूसरे में सामाजिक और राजनीतिक भावनाओं, रूपों और प्रेरकभावों का परिवर्तन हुआ और इसके फलस्वरूप जनसाधारण की चेतना में जो फेरफार हुआ वह बौद्धिक और लौकिक था, आध्यात्मिक नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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