गीता कर्म योग

कर्म योग गीता

बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य

गीता कर्म योग
बाल गंगाधर तिलक
लेखक बाल गंगाधर तिलक
मुख्य पात्र कृष्ण, अर्जुन
अनुवादक माधवराव सप्रे
प्रकाशक पिलग्रिम्स पब्लिशिंग, वाराण्सी
प्रकाशन तिथि संवत्‌ 1973 (सन्‌ 1916 ई.‌
ISBN 81-7769-517-7
देश भारत
पृष्ठ: 852
भाषा हिंदी, संस्कृत
विषय गीता
आवरण आशा मिश्रा
टिप्पणी बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा रचित गीता बहुप्रचलित है, इसके अनुकरण में 'शक्ति गीता', 'शिव गीता', अर्जुन गीता', हंस गीता आदि गीताओं की रचनाएं की गयी हैं।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।[1]गीता 2.50।

यदि किसी मनुष्य को किसी शास्त्र के जानने की इच्छा पहले ही से न हो तो वह उस शास्त्र के ज्ञान को पाने का अधिकारी नहीं हो सकता। ऐसे अधिकार रहित मनुष्य को उस शास्त्र की शिक्षा देना मानो चलनी ही में दूध दुहना है। शिष्य को तो उस शिक्षा से कुछ लाभ होता ही नहीं; परन्तु गुरु को भी निरर्थक श्रम करके समय नष्ट करना पड़ता है। जैमिनि और बादरायण के आरंभ में इसी कारण से अथातो धर्मजिज्ञासा और अथातो ब्रह्माजिज्ञासा कहा हुआ है। जैसे ब्रह्मोपदेश मुमुक्षुओं को और धर्मोपदेश धर्मेच्छुओं को देना चाहिए, वैसे ही कर्म शास्त्रोपदेश उसी मनुष्य को देना चाहिए जिसे यह जानने की इच्छा या जिज्ञासा हो कि संसार में कर्म कैसे करना चाहिए। इसीलिए हमने पहले प्रकरण में 'अथातो' कहकर, दूसरे प्रकरण में कर्म–जिज्ञासा का स्वरूप और कर्म–योगशास्त्र का महत्त्व बतलाया है। जब तक पहले ही से इस बात का अनुभव न कर लिया जाए कि अमुक काम में अमुक रुकावट है, तब तक उस अड़चन से छुटकारा पाने की शिक्षा देने वाला शास्त्र का महत्त्व ध्यान में नहीं आता; और महत्त्व को न जानने से केवल रटा हुआ शास्त्र समय पर ध्यान में रहता भी नहीं है। यही कारण है कि जो सदगुरु हैं वे पहले यह देखते हैं कि शिष्य के मन में जिज्ञासा है या नहीं, और यदि जिज्ञासा न हो तो वे पहले उसी को जाग्रत करने का प्रयत्न किया करते हैं।

गीता में कर्मयोग शास्त्र का विवेचन इसी पद्धति से किया गया है। जब अर्जुन के मन में यह शंका आई कि जिस लड़ाई में मेरे हाथ से पितृवध और गुरुवध होगा तथा जिसमें अपने सब बंधुओं का नाश हो जाएगा, उसमें शामिल होना उचित है या अनुचित; और जब वह युद्ध से पराड़्मुख होकर सन्न्यास लेने को तैयार हुआ और जब भगवान के इस सामान्य युक्तिवाद से भी उसके मन का समाधान नहीं हुआ कि 'समय पर किए जाने वाले कर्म का त्याग करना मूर्खता और दुर्बलता का सूचक है। इससे तुमको स्वर्ग तो मिलेगा ही नहीं, उलटा दुष्कीर्ति अवश्य होगी।' तब श्री भगवान ने पहले

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे

अर्थात; जिस बात का शोक नहीं करना चाहिए उसी का तो तू शोक कर रहा है और साथ–साथ ब्रह्मज्ञान की भी बड़ी बड़ी बातें छाँट रहा है, कहकर अर्जुन का कुछ थोड़ा सा उपहास किया और फिर उसको कर्म के ज्ञान का उपदेश दिया। अर्जुन की शंका कुछ निराधार नहीं थी। गत प्रकरण में हमने यह दिखलाया है कि अच्छे अच्छे पंडितों को भी कभी–कभी 'क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?' यह प्रश्न चक्कर में डाल देता है। परन्तु कर्म–अकर्म की चिन्ता में अनेक अड़चनें आती हैं, इसलिए कर्म को छोड़ देना उचित नहीं है। विचारवान पुरुषों को ऐसी युक्ति अर्थात 'योग' का स्वीकार करना चाहिए जिससे सांसारिक कर्मों का लोप तो होने न पाए और कर्माचरण करने वाला किसी पाप या बंधन में भी न फँसे– यह कहकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले यही उपदेश दिया है-

तस्माद्योगाय युज्यस्व,

अर्थात; तू भी इसी युक्ति को स्वीकार कर। यही 'योग' कर्मयोगशास्त्र है और जबकि यह बात प्रगट है कि अर्जुन पर आया हुआ संकट कुछ लोक–विलक्षण या अनोखा नहीं था। ऐसे अनेक छोटे–बड़े संकट संसार में सभी लोगों पर आया करते हैं। तब तो यह बात आवश्यक है कि इस कर्मयोगशास्त्र का जो विवेचन भगवद्गीता में किया गया है, उसे हर एक मनुष्य सीखे। किसी शास्त्र के प्रतिपादन में कुछ मुख्य और गूढ़ अर्थ को प्रगट करने वाले शब्दों का प्रयोग किया जाता है। अतएव उनके सरल अर्थ को पहले जान लेना चाहिए और यह भी देख लेना चाहिए कि उस शास्त्र के प्रतिपदान की मूल शैली कैसी है, नहीं तो फिर उसके समझने में कई प्रकार की अपत्तियाँ और बाधाएँ होती हैं। इसलिए कर्मयोगशास्त्र के कुछ मुख्य शब्दों के अर्थ की परीक्षा यहाँ पर की जाती है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसलिए तू योग का आश्रय ले। कर्म करने की जो रीति, चतुराई या कुशलता है उसे योग कहते हैं। यह 'योग' शब्द की व्याख्या अर्थात लक्षण है। इसके संबंध में अधिक विचार इसी प्रकरण में आगे चलकर किया है।

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