सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
32. भक्ति का भव्य दर्शन
1. भाइयो, अर्जुन के सामने जब स्वधर्म-पालन का प्रश्न उपस्थित हुआ, तो उसके मन में स्वकीय और परकीय का मोह उत्पन्न हो गया और वह स्वधर्माचरण को टालने की चेष्टा करने लगा। उसका यह वृथा मोह पहले अध्याय में दिखाया गया। इस मोह को मिटाने के लिए दूसरा अध्याय शुरू हुआ। उसमें ये तीन सिद्धान्त बताये गये-
आज सातवां अध्याय है। इस अध्याय में विकर्म का एक नया ही भव्य कक्ष खोल दिया गया है। सृष्टि-देवी के मंदिर में, किसी विशाल वन में, हम जिस तरह नाना प्रकार के मनोहर दृश्य देखते जाते हैं, वैसा ही अनुभव गीता ग्रन्थ में होता है। छठे अध्याय में एकाग्रता का कक्ष देखा। अब हम जरा दूसरे कक्ष में प्रवेश करें। 2. उस कक्ष का द्वार खोलने से पहले ही भगवान ने इस मोहकारिणी जगत् रचना का रहस्य समझा दिया है। एक ही प्रकार के कागज पर एक ही कूंची से चित्रकार नानविध चित्र अंकित करता है। कोई सितारिया सात स्वरों से ही अनेक राग निकालता है। वाङ्मय के बावन अक्षरों की सहायता से हम नाना प्रकार के विचार और भाव प्रकट करते हैं। वैसा ही इस सृष्टि में भी है। सृष्टि में अनंत वस्तुएं और अनंत वृत्तियां दिखायी देती हैं। परन्तु यह सारी अंतर्बाह्य सृष्टि एक ही अखंड आत्मा और एक ही अष्टधा प्रकृति के दुहरे मसाले से बनी हुई है। क्रोधी मनुष्य का क्रोध, प्रेमी मनुष्य का प्रेम, दुःखी का क्रंदन, आनंदी का हर्ष, आलसी का नींद की ओर झुकाव, उद्योगी का कर्मस्फुरण; ये सब एक ही चैतन्य-शक्ति के खेल हैं। इन परस्पर-विरुद्ध भावों के मूल में एक ही चैतन्य भरा हुआ है। भीतरी चैतन्य एक ही है। उसी तरह बाह्य आवरण का भी स्वरूप एक ही है। चैतन्यमय आत्मा और जड़ प्रकृति, इस दुहरे मसाले से सारी सृष्टि बनी है, जनमी है, यह आरंभ में ही भगवान बता रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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