गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 397

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

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सुचिर मनुनयेन प्रीणयित्वा मृगाक्षीं
गतवति कृतवेशे केशवे कुञ्जशय्याम्।
रचित-रुचिर-भूषां दृष्टि मोषे प्रदोषे
स्फुरति निरवसादां कापि राधां जगाद ॥1॥[1]

अनुवाद- मृगनयना श्रीराधा को चिरकाल तक अनुनय-विनय से प्रसन्ना करके श्रीकृष्ण चले आये और मोहनवेश धारणकर निकुञ्ज-मन्दिर स्थित शय्या पर अवस्थित हो उनकी प्रतीक्षा करने लगे, इधर दृष्टि-आच्छादनकारिणी सन्ध्या उपस्थित हुई तब विविध मनोहर अलंकार विभूषिता श्रीराधा से कोई सखी इस प्रकार कहने लगी-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [एवं प्रियां प्रसाद्य कुञ्जशय्यां गतवति श्रीकृष्णे]- कापि (सखी) दृष्टिमोषे (दृष्टिं मुञ्चाति तमसावृणोति तथोक्ते दर्शनचौरे इत्यर्थ:) प्रदोषे (सन्ध्यायां) स्फुरति (प्रकाशमाने सति) सुचिरं (दीर्घकालं व्याप्य) अनुनयेन मृगाक्षीं (श्रीराधां) प्रीणयित्वा (सन्तोष्य) कृतवेशे (परिहित-श्रृंगारोचित-वेशे) केशवे (कृष्णे) कुञ्जशय्यां गतवति [सति] निरवसादां (अनुनयादिना अवसादरहितां स्फुत्तिमतीमित्यर्थ:) [अतएव] रचित-रुचिर-भूषां (रचिता रुचिरा प्रियमनोहारिणी भूषा यया तां) राधां जगाद (वभाषे) ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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