गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 363

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

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बालबोधिनी- अब कवि जयदेव श्रीकृष्ण द्वारा श्रीराधा के प्रति कहे गये चाटु-वाक्यों का स्मरण कर श्रीराधा की महिमा स्फूर्त्त होने से उनका सौभाग्य प्रतिपादित करने के लिए श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य का वर्णन करने लगे हैं। उनका कहना है कि मैं अपने शिष्यों एवं प्रशिष्यों के साथ प्रेमाभक्ति के प्रतिबन्धक अशुभ समुदाय की शान्ति हेतु श्रीगोविन्द के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ। श्रीगोविन्द के चरणकमलों का माहात्म्य बताते हुए कवि कहते हैं-

भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों की उपमा कमल से दी गयी है- उनके श्रीचरण, कमल के समान अति मनोहर हैं। जिस प्रकार कमल में पराग समाहित होता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण के चरणों में समाहिता आकाशगंगा स्वच्छन्द रूप से नि:सृत हो परागवत मनोहारिणी प्रतीत होती है। पराग से सराबोर कमल पर जैसे भ्रमर सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार अतिशय आनन्द से ओतप्रोत हो अमन्द-आनन्दसन्दोह से परिपूर्ण होकर इन्द्रादि देवसमूह श्रीकृष्ण को साष्टागं प्रणाम करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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