गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 357

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

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जनयसि मनसि किमिति गुरुखेदम्?
शृणु मम वचनमनीहित भेदम्॥
माधवे... ॥6॥[1]

अनुवाद- तुम मन-ही-मन इतनी क्षुब्ध क्यों हो रही हो? मेरी बात सुनो, मैं बिना किसी भेद के तुमसे हित की बात कहती हूँ।

पद्यानुवाद
खेद-भार से बोझिल मन क्यों?
काँप रहा है मृदु तन क्यों यों?

बालबोधिनी- सखी की ये सब बात सुनकर भी श्रीराधा दु:खी हो रही थीं, तब सखी ने पुन: कहा हे प्रिय सखि! मन में इतना द्वेष क्यों भरा हुआ है, क्यों व्यर्थ की आशंकाएँ तुम्हारे मन में उठ रही हैं? इतना भारी दु:ख क्यों कर रही हो इस विदारक विरह से तुम इच्छारहित चेष्टारहित अभिलाषारहित हो गई हो। देखो, मेरी बात सुनो, मैं तुम्हारा अहित नहीं चाहती हूँ यह समझ लो। तुममें और श्रीकृष्ण में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [एतदाकर्ण्य खिद्यन्तीं प्राह]- किमिति (कथं) मनसि (चित्ते) गुरुखेदं (महत् कष्टं) जनयसि (सहसे इत्यर्थ:) [नैव विधेयम्]; अनीहितभेदं (अनीहितम् अचेष्टित-मनभिलषितमिति यावत् विरहदु:खं तस्य भेदो यस्मात् तादृशं; यथा युवयो: पुनरपि विरहो न भवेदेवम्भूवमित्यर्थ:) मम
    वचनं शृणु [तथा सति पुनस्ते विरहदु:खं मा भवितेत्यर्थ:] ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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