गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 352

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

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पद्यानुवाद
मन्द-मन्द मधु वायु विहरती,
लायी उसको यहाँ, सिहरती,
बैठी जिसका मयान धरो।
मानिनि! मत अब मान करो॥

बालबोधिनी- हे सखी! अब तुम्हें लक्ष्मीपति माधव से मान नहीं करना चाहिए, वे मधुवंश में उत्पन्न हुए हैं, महासम्पत्ति के अधिकारी हैं, फिर भी तुम्हें मना रहे हैं, मनाते चले जा रहे हैं तुम मान करना छोड़ दो। वासन्ती बयार प्रवाहित हो रही है, हरि स्वयं तुम्हारे अभिसार के लिए आ रहे हैं- तुम्हारे ही भवन में अर्थात् घर में। इससे बढ़कर सुख और क्या हो सकता है? उनका आगमन सुख की परावधि है- राधे! तुम उनका सम्मान करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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