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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:
सप्तदश: सन्दर्भ:
17. गीतम्
अन्तर्मोहन-मौलि-घूर्णन-चलन्मन्दार-विस्रंशन अनुवाद- गोपियों के अन्त:करण को मोहने वाली, मौलिस्थित मणिमय किरीटों को घूर्णित करने वाली, चञ्चल मनोहर पुष्पों को विभ्रंशित करने वाली, दृप्त दानवों के द्वारा विदलित देवताओं के दुर्निवार दु:ख को दूर करने वाली, कुरंगीनयनाओं के लिए स्तम्भन, आकर्षण एवं नेत्रों के हर्ष की अभिवृद्धि करने वाली वंशीध्वनि आप सबके मंगलमय मार्ग के विघ्नों का नाश करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अथ वंशीरवश्रवणेन श्रीराधिकाया: अतिगाढ़ोऽपि मान: अपयास्यतीति कवि: वंशीध्वनिं वर्णयन् आशिषमातनोति]-कुरंगी-दृशाम् (मृगलोचनानाम्) अन्तर्मोहन-मौलि-घूर्णन-चलन्मन्दार-विस्रंसन-स्तब्धाकर्षण-दृष्टि-हर्षण-महामन्त्र: (अन्तर्मोहने मनोमोहने मौलि-घूर्णने साधु साधु इति शिर:कम्पने चलतां मन्दाराणां देवतरु-कुसुमानां विस्रंसने तथा स्तब्धे स्तम्भे, आकर्षणे, तथा दृष्टिहर्षणे वशीकरणे महामन्त्र:) [तथा] दृप्यद्दानवदूयमान-दिविषद्-दुर्वार-दु:खापदां (दृप्यद्भि: दर्पपूर्णै: दानवै: दूयमानानां पीड्यमानानां दिविषदां देवानां दुर्वाराणां दु:खापदाम् अनिवार्यदु:खपङ्क्तिनां) भ्रंश: (ध्वंस: नाशक इत्यर्थ:) [वंशीरव-श्रवणमात्रेणैव देवा: दैत्यभयात् मुच्यन्ते इति भाव:] कंसरिपो: (श्रीकृष्णस्य) वंशीरव: व: (युष्माकं) श्रेयांसि (शुभानि) व्यपोहयतु (विगतविघ्नानि करोतु) अतएव विलक्षो गाढ़मानविलोकाद् विस्मयान्वितो लक्ष्मीपति: श्रीराधापतिर्यत्र स: इति अष्टम: सर्ग: ॥2॥
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