गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 340

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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पद्यानुवाद
अबला-वध की साध लिये, तुम वन वन डोल रहे हो।
बालचरित का प्रथम पृष्ठ क्या फिर से खोल रहे हो?॥
हे माधव! हे कमल-विलोचन! वनमाली! रसभीने!
अपनी व्यथाहारिणीके ढिग जाओ हे परलीने!॥

बालबोधिनी- पुन: श्रीराधा ने कहा यह तो आपकी स्वभावसिद्धता ही है कि वनों में आप अबलाओं को 'ग्रसने' के लिए, उनका बध करने के लिए ही घूमते हैं, मेरा भी बध कर रहे हो तो इसमें वैचित्र ही क्या है? आपने तो अपने बाल्यकाल में ही कंस-भगिनी, युद्धप्रिया पूतना का वध कर ख्याति पायी है, तो मेरी जैसी अबला का बध करना तो कितना आसान है। जब ऐसी प्रबला आपके द्वारा कालकवलित हो गयी, तो मेरी जैसी अबला का बध करने में आश्चर्य ही क्या है? शास्त्रों में स्त्री-बध निषिद्ध कहा गया है, निन्दनीय माना गया है, पर आपकी यह नृशंसता तो जन्मसिद्ध ही है। कृपाकर चले जाओ। अब तो आप युवक हैं, ऐसी स्थिति में मुझ जैसी स्त्री का बध करने में आपको कोई प्रयास भी नहीं करना पड़ेगा। हे निष्ठुर! अब रहने भी दो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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