गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 336

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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पद्यानुवाद
लख अधरों पर दन्तक्षतों को छिद जाता जी मेरा।
फिर भी क्यों कोई कहता है, 'रामो! है हरि तेरा॥'
हे माधव! हे कमल-विलोचन! वनमाली! रसभीने!
अपनी व्यथाहारिणी के ठिग जाओ हे परलीने!!

बालबोधिनी- हे कृष्ण! नयन राग इत्यादि को तुम छल-छद्म वाक्यों से आच्छादित कर सकते हो, परन्तु उस विलासिनी के दाँतों से क्षत-विक्षत अधर-पल्लव को कैसे छुपा पाओगे जो चन्द्रकला की भाँति प्रकाशित हो रहा है? तुम्हारी यह निर्लज्ज हँसी मेरे चित्त में दाह पैदा करती है, सुरतकाल में तुम्हारे होठों पर उस रमणी के 'दशन' की छाप मुझमें खेद उत्पन्न कर रही है, विरह के कारण मेरी दशा दशमी स्थिति तक पहुँच गयी है। बार-बार यही कहते हो हम-तुम एक हैं पर इस स्थिति में तुम अभेद कैसे अभिव्यक्त कर सकते हो तुम चले जाओ।

श्रीकृष्ण ने सफाई दी प्रिये! यह तो सौरभलुब्ध भ्रमरों के द्वारा दंशन कर लिये जाने से ही मेरे अधर क्षत हो रहे हैं, इन अधरों पर किसी रमणी का दंशन नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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