गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 335

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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दशन-पदं भवदधर-गतं मम जनयति चेतसि खेदम्।
कथयति कथमधुनापि मया सह तव वपुरेतदभेदम्॥
हरि हरि याहि माधव..... ॥5॥[1]

अनुवाद- उस विलासिनी के दन्त आघात से आपके अधर क्षत-विक्षत हो रहे हैं, जिन्हें देख मेरे अन्त:करण में खेद उत्पन्न होता है और अब भी, आप कहते हैं कि तुम्हारा शरीर मुझसे पृथक नहीं है, अभिन्न है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [गैरिकचित्रितमेतत् नान्यांना-चरणालक्तक-सिक्तमितिचेत् तत्राह]- एतत् (प्रत्यक्षदृष्टं) तव वपु: (शरीरं) अधुनापि (एवं भावान्तरमापतितेऽपि) मया सह अभेदं (ऐक्यंनावयोर्भेद इति) कथं कथयति (सूचयति); (तस्या: तत्कथनप्रकारमाह यत:] भवदधरगतं दशनपदं (दन्तक्षतं) मम चेतसि खेदं जनयति [व्यंगोक्तिरियम् त्वदधरस्थितस्य मच्चित्तव्यथाजनकत्वात् अभेदो ज्ञायते नयनरागादिकं छद्मना आच्छादितम् इदन्तु उदितचन्द्र कलावत्र प्रकाशमानमिति भाव:] ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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