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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:
सप्तदश: सन्दर्भ:
17. गीतम्
दशन-पदं भवदधर-गतं मम जनयति चेतसि खेदम्। अनुवाद- उस विलासिनी के दन्त आघात से आपके अधर क्षत-विक्षत हो रहे हैं, जिन्हें देख मेरे अन्त:करण में खेद उत्पन्न होता है और अब भी, आप कहते हैं कि तुम्हारा शरीर मुझसे पृथक नहीं है, अभिन्न है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [गैरिकचित्रितमेतत् नान्यांना-चरणालक्तक-सिक्तमितिचेत् तत्राह]- एतत् (प्रत्यक्षदृष्टं) तव वपु: (शरीरं) अधुनापि (एवं भावान्तरमापतितेऽपि) मया सह अभेदं (ऐक्यंनावयोर्भेद इति) कथं कथयति (सूचयति); (तस्या: तत्कथनप्रकारमाह यत:] भवदधरगतं दशनपदं (दन्तक्षतं) मम चेतसि खेदं जनयति [व्यंगोक्तिरियम् त्वदधरस्थितस्य मच्चित्तव्यथाजनकत्वात् अभेदो ज्ञायते नयनरागादिकं छद्मना आच्छादितम् इदन्तु उदितचन्द्र कलावत्र प्रकाशमानमिति भाव:] ॥5॥
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