गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 333

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

Prev.png

चरणकमल-गलदलक्तक-सिक्तमिदं तव हृदयमुदारम्।
दर्शयतीव बहिर्मदन-द्रुम-नव-किसलय-परिवारम्
हरि हरि याहि माधव..... ॥4॥[1]

अनुवाद- आपके प्रशस्त हृदय पर वरांगना के चरण-कमलों के अलक्तक रस से रञ्जित लोहित वर्ण चिह्न ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो आपके अन्त:करण में अवस्थित बद्धमूल मदन-वृक्ष के अरुण-वर्ण नूतन पल्लव बाहर अभिव्यक्त हो रहे हैं।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [तवान्वेषणे भ्रमणात् वने ममेदं वपु: कण्टकै: क्षतं नतु नखक्षतानीमानीति चेत् तन्न]- इदं तव उदारं (मनोहरं) हृदयं [तस्या:] [प्रेमोल्लासत:] चरण-कमल-गलदलक्तक -सिक्तं (चरण-कमलाभ्यां गलता स्रवता अलक्तकेन सिक्तम्); अतएव मदनद्रुम-नव-किशलय-परिवारं (मदनद्रुमस्य हृदयस्थस्य कामवृक्षस्य नवकिशलय-परिवारं बालपल्लवसमूहं) [हृदयात्] बहि: दर्शयतीव (प्रकटयतीव) ॥4॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः