गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 332

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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पद्यानुवाद
स्मर-संगर-खर नख-क्षत-रेखा अंकित वपु पर ऐसे।
नील पटल पर रति-जय लेखा, स्वर्ण-लिखित हो जैसे॥
हे माधव! हे कमल-विलोचन! वनमाली! रसभीने!
अपनी व्यथा-हारिणी के ठिग जाओ हे परलीने!

बालबोधिनी- श्रीराधा कहती हैं हे कृष्ण! तुम्हारा अंग-अंग तुम्हारी काम-केलि की कहानी कह रहा है। उस रमणी ने आपके वक्ष:स्थल पर तीक्ष्ण नखक्षत किया है ऐसा लग रहा है कि तुम्हारा हृदय रणभूमि है, यहाँ विकट युद्ध हुआ है। नीलवर्ण आपके वपु पर उस रमणी के द्वारा किये गये नख-क्षतों की लालिमामयी तीक्ष्ण रेखाएँ ऐसी प्रतीत हो रही हैं, मानो मरकतमणि की नीली शिला पर स्वर्ण-मसि से लिखी हुई लिपि हो, रतिजयपती हो। यह जय-लेख अपना विजय-सन्देश कह रहा है। कामी के प्रति कामिनी का भेजा गया यह केलिलेख 'मैंने रतिक्रीड़ा में इसे सम्पूर्णरूपेण जीत लिया है। कामिनी के द्वारा दूतरूप में भेजे जाने के कारण 'अधमत्व' ही व्यंग्यार्थ से सूचित हो रहा है। 'खर' शब्द से श्रीराधा का विशेष अभिप्राय है एक तो इससे विलासभंगता सूचित होती है, दूसरे नख-आघात-क्षत ऐसे होने चाहिए, जिसमें तीक्ष्णता न हो, अपितु मृदुता हो। तीक्ष्णता तो कष्टदायिनी होती है। लगता है उस रमणी को रतिविलास का ज्ञान है ही नहीं। तुम जाओ! श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया राधे! मैं तुम्हें कंटकाकीर्ण वनों में खोज रहा था, वहीं काँटों से मेरा शरीर क्षतविक्षत हो गया है, ये किसी रमणी के नख-क्षत नहीं हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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