गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 331

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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वपुरनुहरति तव स्मर-संगर-खरनखरक्षत-रेखम्।
रकत-शकल-कलित-कलधौत-लिपेरिव रति-जयलेखम्॥
हरि हरि याहि माधव..... ॥3॥[1]

अनुवाद- आपका यह श्यामल शरीर कामकेलि के समय रतिरणनिपुणा कामिनी के प्रखर नखों से रेखांकित हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है, मानो मरकतमणिरूपी दीवार पर स्वर्णलिपि से रति-जय-लेख अंकित कर दिया हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [त्वच्चिन्ताशोकेन मलिनो यमधरो नतु अन्यनारीनेत्र-चुम्बनादित्याहज]-स्मर-संगर-खर-नखर-क्षतरेखं (स्मरसंगरे मन्मथयुद्धे खरै: तीक्ष्णै: बाणैरिव नखरै: क्षतान्येव रेखा: यस्मिन् तत्) तव वपु: (शरीरं) मरकत-शकल-कलित-कलधौत-लिपेरिव (मरकतशकले नीलमणिखण्डे कलिता अर्पिता या कलधौतस्य सुवर्णस्य लिपि: अक्षरविन्यास: तस्या इव) रतिजयलेखं (रते: जयलेखम् विजयपत्रम्) अनुहरति (सदृशीकरोति) [वपुष: कृष्णत्वात् नखक्षतस्य रक्तत्त्वाच्च मरकताख्रपतलिपे: साम्यम्] ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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