गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 330

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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कज्जल-मलिन-विलोचन-चुम्बन-विरचित-नीलिम-रूपम्।
दशन-वसनमरुणं तव कृष्ण! तनोति तनोरनुरूपम्॥
हरि हरि याहि माधव..... ॥2॥
[1]

अनुवाद- आपकी दशन-पंक्ति के-वसन स्वरूप अरुण वर्ण के सुन्दर अधर व्रजयुवतियों के काजल से अञ्जित नयनों के चुम्बन करने से कृष्णवर्ण होकर आपके शरीर के अनुरूप ही कृष्णता को प्राप्त हो रहे हैं।

पद्यानुवाद
उसकी कजरारी आखों के चुम्बन से हैं काले।
अरुण अधर ये छली! तुम्हारे, दीख रहे मतवाले॥

बालबोधिनी- श्रीराधा अपने अन्तर में खण्डिता का आरोप करके बड़े मर्मभेदी व्यंगवाणों से माधव को भेदने लगती हैं- कृष्ण! कपटता की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम यह कहते हो कि दूसरी किसी भी रमणी के साथ मैंने रात नहीं बितायी है तो ये आँखें इतनी लाल-लाल क्यों हो रही हैं? उसी अनुरागिणी के प्रति अभी भी तुम्हारा प्रेम तुम्हारी आँखों में झलक रहा है। श्रीकृष्ण कहने लगे- प्रिये! मैं सच कहता हूँ कि मैंने किसी भी रमणी के साथ रात्रि जागरण नहीं किया, अलसता के कारण मेरी आँखें बन्द हो रही हैं। श्रीराधा कहने लगीं पुन: यह तुम्हारे लाल अधर काले क्यों हो रहे हैं? तुम्हारे शरीर के अनुरूप रातभर उसकी काजल-अँजी आँखों का तुमने चुम्बन किया है। जाओ, उसी के पास जाओ, जिसने तुम्हारी आँखों को रंगा है, इन होठों को रंगा है, रातभर अपनी करुणा बरसायी है, मुझसे झूठी बातें मत करो, जाओ! रति रसावेश में संयुक्त हुए आपके आरक्त नयन उस व्रजसुन्दरी के प्रति प्रबल अनुराग रूप रंग से रंजित होकर प्रकाशित हो रहे हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [त्वच्चिन्तयैव जागरान्नोत्रे मे राग:, नतू अन्यस्या रतिरागादितिचेत्र तत्रह]- हे कृष्ण, कज्जल-मलिन-विलोचन- चुम्बन-विरचित-नीलिमरूपम् (कज्जलेन मलिनयो: विलोचनयो: नेत्रयो: तस्या इति शेष:, चुम्बनेन विरचितं नीलिमरूपं यत्र तादृशं) तव अरुणं (सहजलोहितं) दशनवसनं (अधर:) [अधुना] तनो: (तव शरीरस्य) अनुरूपं (सदृशरूपं श्यामतामित्यर्थ:) तनोति (व्यनक्ति) [हरि हरि याहि माधव याहीत्यादि सर्वत्र योजनीयम्] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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