गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 323

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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बालबोधिनी- प्रस्तुत सर्ग के अन्तिम श्लोकों में वैष्णवों को कवि जयदेव के द्वारा आशीर्वाद दिया गया है यह नन्दनन्दन श्रीकृष्ण जगत को आनन्ददायी हों। निकुञ्ज-वन के निकट जयदेव जी के द्वारा श्रीराधा-माधव की पूर्व-केलि का स्मरण कर प्रात:काल की स्थिति का निरूपण किया है। कवि जयदेव श्रीराधा का विरह वर्णन करने में असमर्थ हो गये, तब सिंहावलोकन न्याय से रात्रिकालीन साधारण केलि का चित्रंकन कर प्रात:कालीन श्रीराधा की खण्डितावस्था का दिग्दर्शन कराया है। श्रीश्रीराधा-माधव दोनों ने एक साथ रति-केलि के द्वारा पिछली रात बितायी है एवं विभ्रम से एक-दूसरे के वस्त्र पहन लिये हैं। इस वैचित्र्य परिवर्त्तन से सखियाँ हँस पड़ीं, उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। अच्युत श्रीकृष्ण ने अपने तन पर नील-वसन कञ्चुक को धारण किया है और श्रीराधा का उर पीताम्बर से ढका हुआ है। यह वस्त्र-विनिमय ही सखियों के स्वच्छन्द हास्य का कारण है। लज्जा से चञ्चल नेत्रों को श्रीराधा के मुख पर रखते हुए कटाक्षपात कर श्रीकृष्ण मन्द-मन्द मुस्कराने लगे।

प्रस्तुत श्लोक में कवि जयदेव की लोकम लकी कामना प्रकट हुई है। हास्य रस, शार्दूल विक्रीडित छन्द, स्वभावोक्ति अलंकार, नायक शठ एवं नायिका अभिसारिका है। श्रीगीतगोविन्द के सोलहवें सन्दर्भ की बालबोधिनी वृत्ति समाप्त।

इति सप्तम: सर्ग:।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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