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बालबोधिनी - कवि जयदेवजी ने अति दैन्य-विनय वचनों के द्वारा स्वयं को पद्मावती श्रीराधारानी के चरण कमलों का चारण चक्रवर्त्ती कहकर अपना परिचय दिया है, उसी आवेश में अन्य कवियों की कृतियों में प्राकृत भाव अथवा हेयता की उपलब्धि कर अपने काव्य में प्रौढ़ता अर्थात गाम्भीर्य का विस्तार करते हुए कहते हैं महाराज लक्ष्मण सेन की सभा में छह प्रख्यात विद्वान थे।
- उमापतिधर नामक कवि राजा लक्ष्मण सेन के अमात्य थे, वे केवल अपनी वाणी का विस्तार मात्र करना जानते थे, उनके काव्य में वाङ्रमाधुर्य तथा शब्दार्थ गुणों का अभाव होता था। उन्होंने वाणी को शाखा-प्रशाखाओं में पल्लवित तो किया, परन्तु ग्राह्य नहीं बना पाये थे, फलत: उनका काव्य सहृदय स्वरूपा ह्लादक अर्थात आनन्ददायिनी न होकर केवल चित्रकोटि के काव्य में सन्निाविष्ट होता था।
- शरण नाम के कवि दुरूह तथा शीघ्रता पूर्वक कविता का प्रणयन करने के लिए प्रख्यात थे। वे लोकप्रिय तो हुए, परन्तु उनका भी काव्य गूढार्थत्वादि दोषों से युक्त एवं प्रसादादि गुणों से रहित होता था।
- गोवर्धनाचार्य लक्ष्मण सेन की सभा के तीसरे पण्डित थे। श्रृंगार-रस जो क्रमश: अन्यान्य रसों से श्रेष्ठ है ऐसे उसके आलम्बन स्वरूप साधारण नायक-नायिका के वर्णन करने में आचार्य गोवर्धन का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं हुआ। परन्तु वे रसान्तर अर्थात्र दूसरे-दूसरे रसों का वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सके। उनके काव्य में निर्दोष अर्थ का सन्निावेश होता था।
- श्रुतिधर नामक कवि तो अपने गुणों के कारण ही प्रसिद्ध थे। वे केवल एक बार सुनकर ही काव्य को याद कर लेते थे।
- धोयी कवि अपनी कविराज की प्रथा से प्रसिद्ध थे। ग्रन्थ के अधिकारी बन तो जाते थे, परन्तु स्वयं कविता का निर्माण नहीं कर पाते थे।
- लक्ष्मण सेन की सभा के छठे कवि जयदेव थे। वाणी की शुिद्ध केवल भगवान के नाम, रूप, गुण एवं लीला आदि के वर्णन से होती है। इस वाणी-शोधन की प्रथा एकमात्र कवि जयदेव ही जानते हैं। श्रीमद्भागवत में श्रीनारद जी कह रहे हैं "तद्वाग्र विसर्गो जनताघविप्लवो।"
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