गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 315

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

Prev.png

श्रीजयदेव-भणित-वचनेन ।
प्रविशतु हरिरपि हृदयमनेन॥
सखि! या रमिता.... ॥8॥ [1]

अनुवाद- श्रीजयदेव कवि विरचित श्रीराधा के विलाप-वचनों के साथ श्रीहरि भी भक्तों के हृदय में प्रवेश करें।

पद्यानुवाद
सजल जलद सम फुल्ल वदन के।
कनक-निकष सम पीत वसनके॥
सकल युव जन श्रेष्ठ तरुण के।
प्रेरक कवि 'जय' काव्य करुण के॥
मिले, जिसे हैं सरस भाव से, उसे, कभी वनमाली।
विरह, स्वजन-स्वर-व्यंग-दरद-सब जला न पाते आली॥

बालबोधिनी- जयदेव कवि के द्वारा माधव के उद्देश्य से गाये गये इस प्रबन्ध से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण हृदय में प्रवेश करें। किसके हृदय में? श्रीराधा के हृदय में। साथ ही कर्ण-रन्ध्र द्वारा मेरे कवि जयदेव के, इस प्रबन्ध के पाठकों के तथा श्रोताओं के भावरूपी हृदय-कमल में भी प्रवेश करें। नागर नारायण हरि हृदय में अवस्थित हों।

इस प्रकार नारायणमदनायास नाम का सोलहवाँ प्रबन्ध समाप्त हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अनेन श्रीजयदेव-भणित-वचनेन (श्रीजयदेवोक्त-श्रीराधाया: माधवमुद्दिश्य वचनेत्यर्थ:) हरिरपि [तदेकचित्तानां भक्तानां] हृदयं (चित्तनिकेतनं) प्रविशतु [प्रविष्ट: कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहमित्युक्ते:] ॥8॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः