गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 314

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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सकल-भुवन-जन-वर-तरुणेन।
वहति न सा रुजमति-करुणेन
सखि! या रमिता.... ॥7॥ [1]

अनुवाद- अखिल जगत के तरुण-श्रेष्ठ, सुकुमार मनोहर रूप लावण्य-विशिष्ट श्रीकृष्ण के साथ रमण करने वाली नायिका अपने अन्त:करण में दारुण विरह-वेदना का अनुभव नहीं करती है क्योंकि वे अति करुण हैं।

बालबोधिनी- समस्त लोकों में जितने भी तरुण युवा पुरुष हैं, उनमें श्रीकृष्ण सर्वातिशय युवतर हैं, सुन्दरतम हैं, वे नवकिशोर नटवर हैं। करुणावरुणालय वे जिस रमणी को भी रमायेंगे, वह अति करुण भाव से मेरी तरह निढाल नहीं पड़ेगी।

निन्दापरक अर्थ में जगत में श्रेष्ठ तरुण पुरुषों के साथ रमण करने वाली रमणी, उनमें से किसी एक का भी विरह होने पर करुणातिशयता के कारण कष्ट का अनुभव करेगी ही।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सकल-भुवन-जन-वर-तरुणेन (सकलभुवनेषु ये जना: युवानस्तेभ्यो वर: श्रेष्ठो य: तरुण: किशोर: तेन) वनमालिना या रमिता सा अतिकरुणेन (अतिशोकेन) रुजं (पीड़ां) न बहति (प्राप्नोति) [जगद्वल्लभतरुण-प्राप्त्या करुणानुपपत्ते:]; पक्षान्तरे या अरमिता, सा अतिकरुणे रुजं न बहति इति न; [अपितु बहत्येव इत्यर्थ:] ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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