गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 313

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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कनक-निकष-रुचि-शुचि-वसनेन।
श्वसिति न सा परिजन-हसनेन
सखि! या रमिता.... ॥6॥ [1]

अनुवाद- स्वर्ण-निकष (कसौटी) सदृश श्याम वर्ण वाले, पवित्र पीतवस्त्र धारण करने वाले श्रीकृष्ण के द्वारा जो सौभाग्यवती रमणी संभुक्ता हुई है, उसे कभी भी परिजनों द्वारा उपहास का कारण बनकर दीर्घनि:श्वास नहीं लेने पड़ते।

बालबोधिनी- सखि! जिन श्रीकृष्ण के वसन (वस्त्र) कसौटी पर घिसी हुई स्वर्ण रेखाओं के समान उज्ज्वल, पीत एवं निर्मल हैं (शरीर कसौटी है, वस्त्र सोना है), ऐसे श्रीकृष्ण द्वारा जो कुलबाला रमिता हुई है, वे पीताम्बरी जिस बड़भागिनी को बाहुपाश में आबद्ध करते हों, तो वह क्या जानेगी कि जब अपने ही परिजन उपहास करते हैं, तब कैसा दु:ख होता है? कैसे साँसें घुटती हैं? कैसी म्लानता होती है?

निन्दापरक अर्थ में सुवर्ण की कान्ति के समान श्याम कान्ति वाले तथा पीतवस्त्र धारण करने वाले श्यामसुन्दर के साथ रमण-सुख प्राप्त करने के लिए जो गोपी कषाय वस्त्र आदि को धारण करती है, उसे अपने परिजनों के उपहास का पात्र बनकर दु:खी होना ही पड़ता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- कनक-निकष-रुचि-शुचि-वसनेन (कनकस्य सुवर्णस्य निकषेषु निकष-पाषाणेषु या रुचि: तद्वत् शुचि उज्ज्वलं वसनं यस्य तेन) वनमालिना या रमिता सा परिजन-हसनेन (परिजनानामुपहासेन) न श्वसिति (दीर्घश्वासं न मूञ्चति) [सौभाग्यगर्वेण काश्चिदपि न गणयतीति भाव:]; पक्षान्तरे या अरमिता सा परिजन-हसने [सति] न श्वसिति इति न, अपि तु श्वसित्येव इत्यर्थ: ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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