गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 298

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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पद्यानुवाद-
कमलाके समान आवास-हृदय पर पग उसके हैं मारते।
और हाथसे 'जावक' रचना फिर मातल हो करते॥

बालबोधिनी- श्रीराधा श्रीकृष्ण की नवीन रति-केलि का वर्णन करते हुए कहती हैं- उस बड़भागिनी के चरण-कमल लक्ष्मी के आश्रय-स्वरूप हैं, रक्तिम वर्ण के नवीन कोमल पल्लवों के समान हैं। उसके पद-नख मणियों की कान्ति को धारण किये हुए हैं, उन चरण-युगल को वे अपने हृदय में संश्लिष्ट करके बैठे हैं, उनके उस वक्ष:स्थल में लक्ष्मी सदा निवास करती है। उनका वह वक्ष:स्थल उस रति-निष्णाता रमणी द्वारा अर्पित नखक्षतों एवं मणिसमूहों से समलंकृत है। उसके उन स्वाभाविक अरुण वर्ण पदों में श्रीकृष्ण अपने करकमलों से महावर (आलक्तक रस) लगाकर बाह्य-आच्छादन-अलंकरण प्रदान कर बड़े यत्न से उन्हें संरक्षण प्रदान कर रहे हैं।

नखमणिपूजित विशेषण रमणी एवं श्रीकृष्ण दोनों में अन्वित होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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