गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 292

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

Prev.png

घटयति सुधने कुच-युग-गगने मृगमद-रुचिरुषिते।
मणिसरममलं तारक-पटलं नख-पद-शशि-भूषिते
रमते यमुना-पुलिन वने..... ॥3॥[1]

अनुवाद- उस सुकेशी के गाढ़ नीलवर्णा कस्तूरी की धूलि से रुषित (विलेपित) परस्पर नितान्त सन्निहित विशाल कुचयुग-मण्डलरूप गगन जो अर्द्धचन्द्राकार नखक्षत से परिशोभित है, उस पर निर्मल तारक-दल के समान मनोहर मणिमय हार को अर्पित कर रहे हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सुघने (निविड़े शोभनमेघयुक्ते च) नखपद-शशि-भूषिते (नखपदं नखक्षतं तदेव शशी तेन भूषिते) तथा मृगमद-रुचि-रूषिते (मृगमदस्य कस्तूरिकाया: या रुचि: कान्ति: तया रूषिते म्रक्षिते गगनपक्षे कस्तूरीदीप्त्यैव म्रक्षिते) कुचयुग-गगने (कुचयुगमेव वृहत्त्वात् गगनं (तत्र) अमलं (निर्मलम् उज्ज्वलमिति यावत्) मणिसरं (मुक्ताहारं) [एव] तारक-पटलं (नक्षत्रराजिं) घटयति (योजयति) ॥3॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः