गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 291

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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पद्यानुवाद
गोरे मुखपर श्याम तिलकने ऐसी ही छवि माारी।
मिरग साथ ज्यों खिल उठती है चन्दाकी उजियारी॥
चपलसे, कुरुबक कुसुमोंसे, सजल मेघसे काले
केशोंको उसके सजते हैं, भीगेसे मतवाले॥
यमुन-पुलिन के सघन कुंज में रमते आज मुरारी।
प्रियकी अमर सुहागिनि होकर जीती बाजी हारी॥

बालबोधिनी- श्रीराधा अपनी सखी से श्रीकृष्ण की श्रृंगार-क्रीड़ा का विवरण करती हुई कहती हैं उन्होंने केवल उसके ललाट पर ही तिलक रचना की हो, केवल ऐसा ही नहीं है, अपितु कनेर पुष्पों से उसके केशों की भी सज्जा की है। उसके बाल इस प्रकार काले, स्निग्ध, घने एवं घुँघराले हैं, मानो कोई सजल मेघों का समूह हो। वह केशपाश ऐसा लगता है, मानो कामदेवरूपी मृग के निर्भय घूमने के लिए घना कानन हो। इस केशपाश के अवलोकन मात्र से ही युवकों का मन चञ्चल हो जाता है। श्रीहरि के द्वारा रमणी के केशपाश में सुसज्जित कुरुवक के पुष्प विद्युत की अतिशय छटा को धारण कर रहे हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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