गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 29

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

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पद्यानुवाद

यदि हरि-चिन्तन-रस आतुर मन, यदि रति-भाव हुलासे।
तो मधु कोमलकान्त पदावलि, सुनो, स्वर्ग-सुख भासे॥3॥

बालबोधिनी - इस प्रबन्ध-काव्य की रचना करने में अपनी योग्यता प्राप्त करते हुए सिद्ध अर्थात प्रतिज्ञात अर्थ के लिए कवि के मन में कोई खेद या विषाद नहीं रहा है। कदाचित्र मन्दबुिद्ध परायण व्यक्ति इसमें श्रद्धा न रखे, इसलिए इस महाकाव्य के अनुशीलन में अधिकारी का निश्चय किया गया है।

हे भक्तगण! यदि श्रीकृष्ण के निरन्तर स्मरण से मन स्निग्ध हो जाता है तथा उनकी रास-विहार कुञ्ज-विलास (स्त्रियों के हाव-भाव विशेष का नाम विलास है, गमनादि की क्रियाओं को भी विलास कहा जाता है), लीला-चातुरी, विदग्ध-माधुरी आदि चारु-चेष्टाओं के विषय में मन में कौतूहल परायणता होती हो तो श्रृंगार रस के वर्णन करने वाले कवि जयदेवजी की इस मधुर वाणी का श्रवण करें।

वस्तुत: किसी को सामान्य हरि:स्मरण से और किसी को श्रीहरि की विशिष्ट रासादि लीला के अवलोकन से परानन्द की अनुभूति होती है। अब यह काव्य कैसा है? इसके उत्तर में कहते हैं यह काव्य श्रृंगार-रस प्रधान और अति मधुर है। इसका अर्थ सहज और बोधगम्य है। इस काव्य के पद अतिशय माधुर्य गुणोपेत-कोमल वर्णनों से ग्रथित तथा रमणीय हैं क्योंकि वे राधाकृष्ण की कान्ति नामक गुण से युक्त हैं, जैसे कान्ता कान्त की अतिशय प्रिया होती है, वैसे ही यह कमनीय पदावली भक्तजनों को अतिशय प्रिय है। इससे इसको संगीतात्मकता तथा गेयता प्राप्त है। इसे मधुर कण्ठ से गाया जाना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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