गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 286

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

Prev.png

विरह-पाण्डु-मुरारि-मुखाम्बुजद्युतिरयं तिरयन्नपि वेदनाम्।
विधुरतीव तनोति मनोभुव: सुहृदये हृदये मदनव्यथाम्
इति चतुर्दश: सन्दर्भ:।[1]

अनुवाद- प्रिय सखि! मेरे विरह में पाण्डुवर्ण हुए श्रीमुरारी के मुखकमल की कान्ति के समान धूसरित यह चन्द्रमा मेरी मनोव्यथा को तिरोहित कर कामदेव के सुहृदभूत मेरे हृदय में मदन-सन्ताप की अभिवृद्धि कर रहा है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अथ चन्द्रं पश्यन्ती तं श्रीकृष्णमुखत्वेन उद्भाव्य तत्र अन्यया सह वर्त्तमानस्यापि मद्विरहेण पाण्डुत्वस्फुर्त्त्या स्वस्मिन् तस्य अतिप्रणयितां स्मरन्ती चन्द्रमाक्षिपति]- अये (खेदे) मनोभुव: (कामस्य) सुहृत् (मित्रभूत:) विरहपाण्डु-मुरारि-मुखाम्बुज द्युति: (विरहेण मम विच्छेदेन पाण्डु यत् मुरारे: कृष्णस्य मुखाम्बुजं तस्य द्युतिरिव द्युतिर्यस्य तथाभूत:) [अतएव] वेदनां (सन्तप्तानां मनोव्यथां) तिरयन्नापि (आच्छादयन् निराकुर्वन्नापीत्यर्थ:; चन्द्रदर्शनेन श्रीकृष्णमुखदर्शनजनितानन्दलाभादिति भाव:) अयं विधु: (चन्द्र:) हृदये अतीव मदनव्यथां (कृष्णस्य अदर्शन-जनितामिति भाव:) तनोति (विस्तारयति) [मदन-सुहृत्त्वेन तन्मुखस्मारकतया चन्द्रो मां व्यथयतीत्यभिप्राय:] ॥1॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः