गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 285

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

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श्रीजयदेव-भणित-हरि-रमितम् ।
कलि-कलुष जनयतु परिशमितम्
कापि मधुरिपुणा... ॥8॥[1]

अनुवाद- कवि जयदेव द्वारा वर्णित यह हरि-रमण-विलास रूप रतिक्रीड़ा सबका कलि-कल्मष अर्थात् कामवासना को शान्त करे।

पद्यानुवाद
श्रीजयदेव कथित यह लीला।
कलि-मल सहज विनाशनशीला॥
शोभित है युवती री कोई।
हरिसे विलस रही जो खोई॥

बालबोधिनी- गीतगोविन्द के इस चौदहवें प्रबन्ध का नाम हरिरमितचम्पकशेखर है। इस प्रबन्ध में विपरीत रति का वर्णन है। रति-व्यापार का यह वर्णन अति पवित्र है। यह पाठकों तथा श्रोताओं के कलिदोषजन्य काम-विकार का प्रक्षालन करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- श्रीजयदेव-भणित-हरि-रमितं (श्रीजयदेवेन भण्तिं यत्र हरिरमितं हरे: रमणं) भक्तानां कलिकलुषं (कामादिकं) परिशमितं जनयतु ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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