गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 282

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

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दयित-विलोकित-लज्जित-हसिता।
बहुविध-कूजित-रति-रस रसिता
कापि मधुरिपुणा... ॥5॥[1]

अनुवाद- दयित श्रीकृष्ण के द्वारा अवलोकित होने पर वह लज्जित होती होगी, हँसती होगी, रतिकाल में रतिरसरसिता होकर कोकिल कलहंसादि के समान मदनविकार सूचक 'सीत्कार' शब्द करती होगी।

पद्यानुवाद
हरि-आलोकित-लज्जित-हँसिता।
बहु विधि कूजित रति-रस-रसिता॥
शोभित है युवती री कोई।
हरिसे विलस रही जो खोई॥

बालबोधिनी- प्रियतम श्रीकृष्ण जब तृप्त होकर उसकी ओर देखते होंगे, तब वह लज्जित होकर गर्दन झुका लेती होगी, हँसती होगी, रतिरसातिरेक के कारण वह पक्षियों- कोकिल, कलहंस के समान विविध प्रकार की मधुर सीत्कार ध्वनि करती होगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- दयित-विलोकित-लज्जित-हसिता (दयितस्य प्रियस्य विलोकितेन वीक्षणेन-लज्जितं लज्जायुक्तं हसितं हास्यं यस्या: तथोक्ता) [तथा] बहुविध कूजित-रति-रस-रसिता (बहुविधं पारावतादिवत् कूजितं यस्यां तादृशी या रति: तस्या रसेन आस्वादेन रसिता रसपूर्णा) ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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