गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 279

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

Prev.png

हरि-परिरम्भण-वलित-विकारा।
कुच-कलशोपरि तरलित-हारा
कापि मधुरिपुणा... ॥2॥[1]

अनुवाद- श्रीकृष्ण का प्रगाढ़ रूप से आलिंगन करने पर मदन-विकार से विमोहित उसमें रोमांच आदि विकार उत्पन्न हो गये होंगे और उसके कुचकलशों पर हार दोलायमान हो रहा होगा।

पद्यानुवाद
हरि-परिरंभण-वलित-विकारा।
कुच-कलशोपरि-तरलित-धारा॥
शोभित है युवती री कोई।
हरिसे विलस रही जो खोई॥

बालबोधिनी- श्रीराधा आनुमानिक तौर पर उस रमणी की चेष्टाओं को चित्रित करते हुए कहती हैं कि श्रीकृष्ण के द्वारा आलिंगिति होने से उस युवती में कामोचित रोमांचादि मदन-विकार उद्भुत हो गये होंगे। कलश सरीखे उन्नत स्तनों पर हार दोलायमान हो रहा होगा। हार की चञ्चलता रतिकाल में युवती द्वारा रतिकर्तृत्व अथवा विपरीत रति में ही संभव है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अत:परं षड्भि: तामेव विशिनष्टि] हरि-परिरम्भण-वलितविकारा (हरे: परिरम्भणेन आलिंगनेन वलित: रचित: विकार: रोमाञ्चादि-कामज-विकृतिर्यस्या: तादृशी) तथा कुच-कलसोपरि (स्तनकुम्भयोरुपरि) तरलित-हारा (तरलित: आन्दोलित: हारो यस्यास्तादृशी) [कापि अधिकगुणा इत्यादि प्रत्येकेन योजनीयम्] ॥2॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः