गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 270

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

13. गीतम्

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कुसुम-सुकुमार-तनुमतनु-शर लीलया।
गपि हृदि हन्ति मामतिविषम-शीलया
यामि हे! कमिह... ॥6॥[1]

अनुवाद- (दूसरे आभूषणों की तो बात ही क्या) मेरे वक्ष:स्थल पर स्थित यह वनमाला अतिशय कोमल कुसुम से भी सुकुमार मेरे शरीर को भी काम-शर की भाँति विषम रूप से आघात प्रदान कर रही है।

पद्यानुवाद
कुसुम देह पर कुसुम हार था,
वहन नहीं हो पाता।

बालबोधिनी- हे कान्त! दूसरे आभूषणों की बात क्या कहूँ, उनकी प्रसन्नता के लिए जो वनमाला हृदय पर धारण करती हूँ, वही कामदेव का अस्त्र बनकर मेरे प्राण ले लेती है, काम-बाण की भाँति हृदय को बेधने लगती है तथा उसका प्रहार इतना विषमय और असह्य होता है कि कुसुम से भी अतिशय सुकुमार देह उसकी विषमता को सहन नहीं कर पाती है। बाणों से शरीर क्षत-विक्षत होता है तो मानो सामान्य-सी पीड़ा होती है, किन्तु इन कामबाणों के द्वारा बँधे हृदय की व्यथा सह्य नहीं होती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [का कथान्यभूषणानाम्] लतत्प्रीत्यै हृदि (हृदये) निहिता स्रक् अपि (कुसुममाल्यमपि; अतिसुकोमल-सुखस्पर्शमपीति भाव:) अतिविषमशीलया (अतिविषमम् अतिदारुणं शीलं स्वभावो यस्यास्तादृश्या; अन्यस्तु बाण: क्षतुमुत्पाद्य व्यथयति, कामबाणस्तु विध्यन् अन्तर्भिनत्तीति विषमशीलत्वमस्य) अतनु-शरलीलया (कामबाण-विलासेन) कुसुम-सुकुमार-तनुं (कुसुमत: अपि सुकुमारी तनु: यस्या: तादृशीं तत्सहन-सामर्थ्यमपि नास्त्यस्या इत्यर्थ:) मां हन्ति (निपीड़यति) ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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