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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
त्रयोदश: सन्दर्भ
13. गीतम्
मम मरणमेव वरमिति-वितथ-केतना। अनुवाद- यह शरीर धारण करना व्यर्थ है, मुझे मर जाना चाहिए। मैं अचेत हो रही हूँ, अब यह दु:सह विरहानल कैसे सहन करूँ? पद्यानुवाद बालबोधिनी- मैं भ्रष्ट हो रही हूँ, जिनके साथ संगम के लिए मैं घोर अन्धकारपूर्ण रात्रि-काल में गम्भीर वन में बैठी रही, विह्नल और अचेतन हो गयी, मैं उनके विरह से कितनी अधीर हो रही हूँ, मैं कहाँ जाऊँ, मेरा तो मरना ही अच्छा है, कितना विरह ताप सहन करूँ मैं, आशा के सभी संकेत झूँठे हो गये हैं। मेरा यह शरीर व्यर्थ ही है, नहीं तो हरि ऐसी उपेक्षा नहीं करते, सखी की बातों में आकर मैंने यहाँ आने का साहस कर लिया, पर मेरे सारे प्रयास व्यर्थ हैं, जीना व्यर्थ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- अति-वितथ-केतना (अतिवितथं नितान्तव्यर्थं केतनं देह: यस्या: तादृशी) कृष्णविरहेण अचेतना च अहम् इह (अधुना) किं (कथं) विरहानलं विषहामि अत: मरणमेव वरं (श्रेष्ठम्) ॥3॥
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