गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 265

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

13. गीतम्

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यदनुगमनाय निशि गहनमपि शीलितं।
तेन मम हृदयमिदमसमशर-कीलितम्
यामि हे! कमिह... ॥2॥[1]

अनुवाद- हाय! जिनका अनुसरण करने के लिए मैं इतनी गहन निशा में इस बीहड़ वन में भी आ गयी और वही मेरे हृदय को कामबाणों से बेध कर रहा है। हाय! मैं किसकी शरण में जाऊँ?

पद्यानुवाद
जिसकी मिलन-चाह ले इतनी गहन निशा में आयी।
वही हृदय को मदन-शरों से छेद रहा री मायी॥

बालबोधिनी- श्रीराधा कहती हैं कि जिनके साथ मिलन के लिए मैं एकान्त निर्जन कानन में आयी, उसी ने मेरे हृदय में काम की कील ठोक दी है या काम का कोई बीजमन्त्र ऐसा कीलित कर दिया है कि मैं कहीं की नहीं रही। 'अपि' से तात्पर्य है ऐसा मैंने पहले कभी नहीं किया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- यदनुगमनाय (यस्य कृष्णस्य अनुगमनाय निरन्तरं संगमाय) निशि (रात्रै) गृहवासं विहाय गहनमपि (निविड़मपि) वनं शीलितं (सेवितम्), तेन (कृष्णेन हेतुना) इदं मम हृदयम् असमशर-कीलितं (असम-शरेण पञ्चबाणेन कामेन कीलितं नितरां विद्धमित्यर्थ:) हे नाथ सखीजन-वञ्चिता इह कं शरणं यामीति सर्वत्र योजनीयम् ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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