विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
त्रयोदश: सन्दर्भ
अत्रान्तरे च कुलटा-कुल-वर्त्म-पात अनुवाद- श्रीकृष्ण श्रीराधा के समीप जाने के लिए सोच ही रहे थे कि इतने में पूर्व दिशारूपी सुन्दर वधू के वदन कमल में चन्दन-बिन्दु के समान कुछ ही दूरी पर जैसे कुलटा स्त्री कुलधर्म का त्याग करने पर जिस विशेष रोग को (क्षयरोग) भोग करती है, उसके चिह्न की भाँति अपने अंग में कलंक को धारण करते हुए सुस्निग्ध किरणों के द्वारा श्रीवृन्दावन धाम को अतिशय सुशोभित कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- अत्रान्तरे (अस्मिन् अवसरे) दिक्सुन्दरी-वदन-चन्दन-विन्दु: (दिक् पूर्वा सैव सुन्दरी तस्या: वदने चन्दन विन्दुरिव इति लुप्तोपमा) कुलटा-कुल-वर्त्मपात-सञ्जात-पातक: इव (कुलटानां कुलवर्त्मन: कुलाचारात् य: पात: पातन: तस्मात् सञ्जातं पातकं तज्जात-रोगविशेषो यस्य तथा-भूत इव) स्फुटलाञ्छनश्री: (स्फुटा) सुव्यक्ता लाञ्छनस्य कलप्रस्य श्री: शोभा यस्मिन् तादृश:; य: खलु पातकी भवति स रोगविशेषचिह्नितो भवतीति भाव:; अनेन चन्द्रस्य पूर्णप्रायता उक्ता इन्दु: (चन्द्र:) अंशुजालै: (किरण समूहै:) वृन्दावनान्तरम् अदीपयत् ॥1॥
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |