गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 255

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

द्वादश: सन्दर्भ

12. गीतम्

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विपुल-पुलक-पालि: स्फीत-सीत्कारमन्त-
र्जनितजडि़मु काकु-व्याकुलं व्याहरन्ती।
तव कितव! विधायामन्द-कन्दर्प-चिन्तां
रस-जलनिधि-मग्ना ध्यानलग्ना मृगाक्षी ॥1॥[1]

अनुवाद- हे शठ! अति रोमांच से युक्त, अन्तर्जनित जड़ता एवं काकुध्वनि द्वारा स्पष्ट रूप से सीत्कार करती हुई वह मृगाक्षी राधिका आपके अतिशय तीव्र मदन-विकार के आवेश में आपके प्रेम-रस सागर में निमज्जित हो किसी प्रकार प्राण धारण करती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [स्व-सख्यार्त्ति-स्मरणेन व्याकुला सा सेर्षमिव पुनराहज हे कितव (धूर्त्त गतप्राणामिव तां वनमानीय निश्चिन्तोऽसीति धूर्त्ततया सम्बोधनम्) विपुल-पुलक-पालि: (विपुला महती पुलकानां रोमाञ्चानां पालि: पङ्क्ति यस्या: तवांग-स्पर्श-चिन्तनेन सञ्जातरोमाञ्चा इत्यर्थ:) स्फीत-शीत्कारं (स्फीत: प्रवृद्ध: शीत्कार: तव दशन-क्षतादि-कल्पनेन जनित इति भाव: यत्र तद् यथा स्यात् तथा) अन्त: (अभ्यन्तरे) जनित-जड़िम-काकु-व्याकुलं (जनितो योऽसौ जड़िमा जाड्यम् अस्फुटत्वमित्यर्थ: तेन जाता या काकु: तया काक्वा ध्वनेर्विकारेण परिरम्भण-चुम्बनादि-स्मरण-जनितेन इति भाव: व्याकुलं यथास्यात्र तथा) व्याहरन्ती (ब्रुवती) सा मृगाक्षी (मृगनयना, मृगी इव सरलचित्ता इत्यभिप्राय:) अमन्द-कन्दर्प-चिन्तां (अमन्दा गाढ़ा या कन्दर्पचिन्ता कामचिन्ता तां) विधाय (परिकल्प्य) तव रस-जलधि-निमग्ना (रस-जलधौ श्रृंगार-रस-सागरे निमग्ना; एतेन आलम्बनं बिना कथं सा जीवतीति अर्थात् ज्ञेयम् समुद्रमग्ना यथा काष्ठमवलम्बते तथा इयमपि उपायान्तराभावात् त्वयि एव) ध्यानलग्ना (ध्याने तव चिन्तने लग्ना च) वर्त्तते इति शेष: ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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